Book Title: Arhat Parshva and Dharnendra Nexus
Author(s): M A Dhaky
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 155
________________ राजस्थान में पार्श्वनाथ के तीर्थ स्थान महोपाध्याय विनयसागर वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से मुख्यतः केवल तीन तीर्थंकरों के लिये ही आगमसाहित्य में नाम के साथ विशेषण प्राप्त होते हैं • ऋषभदेव के लिये " अरहा कोसलिए " अर्हत् कौशलिक, पार्श्वनाथ के लिये "अरहा पुरिसादाणीए " अर्हत् पुरुषादानीय, और महावीर के लिए "समणे भगवं महावीरें " श्रवण भगवान् महावीर । यश नाम कर्म की अत्यधिक अतिशयता के कारण समग्र तीर्थंकरों में से केवल पुरुषादानीय पार्श्वनाथ का नाम ही अत्यधिक संस्मरणीय, संस्तवनीय और अर्चनीय रहा है । अधिष्ठायक धरणेन्द्र और पद्मावती देवी की जागृति एवं चमत्कार प्रदर्शन के कारण वीतराग होते हुए भी मनोभिलाषा पूरक के रूप में पार्श्व का नाम ही प्रभुखता को धारण किये हुए है । यही कारण है कि मन्त्र साहित्य और स्तोत्र साहित्य तो विपुलता के साथ पार्श्व के नाम से ही समृद्ध हैं I सामान्यतः तीर्थों की गणना में वे ही स्थल आते हैं जहाँ तीर्थंकरों के पांचों कल्याणक- -च्यवन, जन्म, दीक्षा, ज्ञान, निर्वाण — हुए हों । सिद्धतीर्थों में उनकी गणना की जाती है जहाँ कोई-न-कोई महापुरुष सिद्ध, बुद्ध, और मुक्त हुए हों अथवा विचरण किया हो । किन्तु अतिशय तीर्थ या चमत्कारी तीर्थ वे कहलाते हैं जहाँ कोई भी महापुरुष सिद्ध तो नहीं हुए हों, परन्तु उन क्षेत्रों में स्थापित उन महापुरुषों / तीर्थंकरो की मूर्तियां अतिशय चमत्कारपूर्ण होती हों । — भगवान पार्श्वनाथ के कई तीर्थ तो उनके जन्म से पूर्व एवं विद्यमानता में ही स्थापित हो गये थे । परम्परागत श्रुति के अनुसार आचार्य जिनप्रभसूरि ने विविध तीर्थकल्प नामक ग्रन्थ (र० सं० १३८९) में लिखा है १. दशग्रीव रावण के समय में निर्मित पार्श्वनाथ प्रतिमा ही कालान्तर में श्रीपुर में स्थापित हुई, वही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध I २. भगवान नेमिनाथ के समय में कृष्ण और जरासन्ध में भीषण युद्ध हुआ था । इस संग्राम में जरासन्ध ने जरा विद्या के प्रयोग से कृष्ण की सेना को निश्चेष्ट कर दिया था । उस समय पन्नगेन्द्र से पार्श्व प्रभु की प्रतिमा प्राप्त की और उसके न्हवण जल/ स्नान जल के छिटकाव से कृष्ण की सेना पूर्णतः स्वस्थ हो गई थी । वही स्थल शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से तीर्थ रूप में प्रसिद्ध हुआ और आज भी इसकी प्रसिद्धि चरम सीमा पर है । ३. स्तम्भन पार्श्वनाथ कल्प के अनुसार भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समय में निर्मित पार्श्व प्रतिमा ही नागराज से नवम वासुदेव श्रीकृष्ण ने प्राप्त की थी । यही प्रतिमा कालान्तर नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि सेढी नदी के तट पर भूमि से प्रकट कर स्तम्भनपुर ( थांभणा ) में स्थापित की थी; जो आज भी तीर्थं स्थल के रूप में प्रसिद्ध है । Jain Education International इसी विविध तीर्थकल्प के अन्तर्गत " अहिच्छत्रानगरीकल्प" और "कलिकुण्ड कुर्कुटेश्वरकल्प" में लिखा है कि प्रभु पार्श्वनाथ दीक्षा ग्रहण कर छद्मस्तावस्थ में विचरण कर रहे थे, तभी ये दोनों तीर्थ क्षेत्र स्थापित हो गए थे। अर्थात् उनकी विद्यमानता में ही ये दोनों स्थल तीर्थ के रूप में मान्य हो गए थे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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