Book Title: Ardhmagadhi Agam Sahitya Evam Acharang Sutra Author(s): Premsuman Jain Publisher: Premsuman Jain View full book textPage 3
________________ जैनधर्म के प्रामाणिक दस्तावेज हैं। उनमें अनेक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध हैं। उनकी पूर्णतः अस्वीकृति का अर्थ अपनी प्रामाणिकता को ही नकारना है। श्वेताम्बर मान्य इन अर्धमागधी आगमों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये ई.पू. पाँचवीं शती से लेकर ईसा की पांचवीं शती अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष में जैन संघ के चढ़ाव-उतार की एक प्रामाणिक कहानी कह देते हैं। अर्धमागधी आगमों का वर्गीकरण वर्तमान में जो आगम ग्रन्थ उपलबध हैं उन्हें निम्न रूप से वर्गीकृत किया जाता है ग्यारह अंग ग्रन्थ-1. आयार (आचारांग) 2. सूयगड (सूत्रकृतांग), 3.ठाण(स्थानांग), 4.समवाय (समवायांग), 5. वियाहपन्नत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति या भगवती), 6. नायाधम्मकहाओ (ज्ञाता-धर्मकथा), 7. उवासगदसाओ(उपासकदशा), 8.अंतगडदसाओ(अन्तकृदृशा), 9. अनुत्तरोववादयदसाओ(अनुत्तरौपपातिकदशा), 10.पण्हवागरणाइं (प्रश्नव्याकरणानि ), 11. विवागसुयं (विपाकश्रुतम्) 12.दृष्टिवाद जो विन्च्छिन्न हुआ है। बारह उपांग ग्रन्थ-उववादइय (औपपातिक) , 2. रायपसेणइय (रायप्रसेनजित), अथवा रायपसेणियं (राजप्रश्नीय), 3. जीवाजीवाभिगम, 4.पण्णवणा (प्रज्ञापना), 5. सूरपण्णत्ति(सूर्यपज्ञप्ति), 6. जम्बूद्दीपपण्णत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), 7.चंदपण्णत्ति, (चन्द्रप्रज्ञप्ति), 8-12. निरयावलिया सुयखंध (निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध), 8. निरयावलियाओ (निरयावलिकाः), 9. कप्पवडिसियाओ (कल्पावर्सिका), 10 पुफियाओं (पुष्पिका), 11. पुप्फचूलाओ (पुष्पचूला) , 12. वण्हिद्साओं (वृष्णिदशा)। जहाँ तक उपुर्यक्त अंग और उपांग ग्रन्थों का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदाय इन्हें मान्य करते हैं जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय इन्हीं ग्यारह अंगसूत्रों के नाम को स्वीकार करते हुए भी यह मानता है कि वे अंगसूत्र वर्तमान में विलुप्त हो गये हैं। उपांगसूत्रों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों में एकरूपता है किन्तु दिगम्बर परम्परा में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म के अन्तर्गत स्वीकार किया गया हैं चार मूलसूत्र ग्रन्थ सामान्यतया उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक और पिण्डानियुक्ति ये चार मूलसूत्र माने गये हैं फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बरPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10