Book Title: Ardhmagadhi Agam Sahitya Evam Acharang Sutra
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

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Page 7
________________ आज जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाएँ इस आगम ग्रन्थ के लुप्त होने की बात स्वीकार करती है फिर भी उनकी यह मान्यता है कि इसके पूर्वगत विभाग के आधार पर परवर्ती काल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है किन्तु इतना निश्चित है कि यह अंग आगम अपने मूल स्वरूप में स्थिर नहीं रह सका। चाहे दृष्टिवाद आज अपने मूल स्वरूप में अनुपलब्ध हो किन्तु उसके कुछ अंश श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के मान्य ग्रन्थों में सुरक्षित हैं। श्वेताम्बर परम्परा में उत्तराध्ययन सूत्र के कुछ अध्ययन, दशासूत्रस्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि आगम ग्रन्थ तथा जीवसमास, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थ पूर्वो के आधार पर ही निर्मित हुए हैं। दिगम्बर परम्परा में भी कषायपाहुड , षटखण्डागम आदि को पूर्वो से उद्धृत माना जाता है। अंग आगमों का बहुत-सा भाग कालक्रम में विलुप्त हुआ है साथ ही वल्लभी वाचना के पूर्व संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन एवं विलोप भी हुआ है। इन ग्रनथों के पुस्तकारूढ़ होने से पूर्व जो श्रुत परम्परा चलती रही, वह भी इन ग्रन्थों के पाठभेद आदि का कारण रही है। आगमों के रूप में जो साहित्य निधि हमें आज उपलब्ध है वह भी भारतीय संस्कृति विशेष रूप से जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति के प्राचीन स्वरूप को स्पष्ट करने में बहुत महत्वपूर्ण है। अर्धमागधी जैनागम के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैआचारांग (आयारंग) इस ग्रन्थ में अपने नामानुसार मुनि-आचार का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। भाषा, शैली तथा विषय की दृष्टि से स्पष्टतः प्रथम श्रुतस्कंध अधिक प्राचीन है। इसकी अधिकांश रचना गद्यात्मक है, बीच-बीच में कहीं-कहीं पद्य आ जाते हैं। अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा का स्वरूप समझने के लिए यह रचना बड़ी महत्वपूर्ण है। इसके उपधान नामक नवमें अध्ययन में महावीर की तपस्या का बड़ा मार्मिक वर्णन पाया जाता है। यहाँ के उनके लाढ, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि में विहार और नाना प्रकार के घोर उपसर्ग सहन करने का उल्लेख आया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में श्रमण के लिए भिक्षा मांगने, आहार-पान शुद्धि, शय्या-संस्तरण ग्रहण, विहार चातुर्मास, भाषा, वस्त्र, पात्रादि उपकरण, मल-मूत्र-त्याग एवं व्रतों व तत्सम्बन्धी भावनाओं के स्वरूपों व नियमोपनियमों का वर्णन हुआ है।

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