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श्री सुविधिनाथ भगवान
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चैत्यवंदन सुविधिनाथ सुविधि दिये, आत्मशुद्धि हेत; श्रावक साधु धर्म बे, तेना सहु संकेत. द्रव्य-भाव व्यवहारने, निश्चय सुविधि बेश; जैनधर्मनी जाणतां, करतां रहे न क्लेश. शुद्धातम परिणाममां ए, सर्व सुविधि समाय; आतम सुविधिनाथ थै, चिदानंदमय थाय.
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स्तवन में कीनो नहीं, तुम बिन ओरशुं राग. दिन दिन वान चढत गुन तेरो, ज्युं कंचन परभाग...
ओरन में हैं कषाय की कलिमा, सो क्यु सेवा लाग. मैं.१ राजहंस तुं मान सरोवर, और अशुचि रुचि काग.. विषय भुजंगम गरुड तु कहिये, और विषय विषनाग. मैं.२
और देव जल छिल्लर सरिखे, तुं तो समुद्र अथाग. तुं सुरतरु जग वंछित पूरण, और तो सूके साग. मैं.३ तुं पुरुषोत्तम तुं ही निरंजन, तुं शंकर वडभाग. तुंब्रह्मा तुं बुद्ध महाबल, तुं ही ज देव वीतराग. सुविधिनाथ तुम गुन फुलनको, मेरो दिल है बाग. जस कहे भ्रमर रसिक होइ तामें, लीजे भक्ति पराग. मैं.५
मैं४
स्तुति नरदेव भाव देवो, जेहनी सारे सेवो, जेह देवाधिदेवो, सार जगमां ज्युं मेवो; जोतां जग एहवो, देव दीठो न तेहवो, 'सुविधि' जिन जेहवो, मोक्ष दे ततखेवो.