Book Title: Antardvand
Author(s): Parmatmaprakash Bharilla
Publisher: Hukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ तबतक ही तो विजेता रहता है, जबतक कि अगली बार कोई अन्य खिलाड़ी न जीत जावे। उसकी वह विजय दीर्घकालिक महत्त्व नहीं रखती; पर यदि विजय प्राप्त करने के लिए कोई अनैतिक आचरण किया गया हो तो उसका प्रतिफल लम्बे समय तक भोगना होता है। यदि मैंने भी छल-कपट कर या उठा-पटक कर तात्कालिक तौर पर कुछ हासिल कर ही लिया तो वह तो तात्कालिक तौर पर अपना छोटा-मोटा प्रभाव उत्पन्न कर नष्ट हो गया, पर कर्मबन्धन की एक अनन्त श्रृंखला जो उत्पन्न हो गई, वह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती है। ___ अरे वह दिन तो निकल ही जाना था, न सही चिकना-चुपड़ा, रूखा-सूखा ही सही, खा-पीकर निकल जाता। सोने को मखमली शैय्या न मिलती तो क्या रातें ही न कटतीं ? वो तो कट ही जानी थीं, पर अब इन कर्मों को मैं कैसे काटूंगा? यदि वे दिन कुछ वैभवशाली रूप में व्यतीत हुए तो उनका मेरे आज के लिए क्या महत्त्व है, मेरे आगामी अनन्तकाल के लिए क्या महत्त्व है? और इसके विपरीत यदि अभावों में व्यतीत हो जाते, तब भी मेरे वर्तमान में क्या कसर रह जाती व आगामी अनन्तकाल पर क्या दुष्प्रभाव डालती? इन क्षणिक तात्कालिक महत्त्व की वस्तुओं के पीछे हम अपने आपको इसप्रकार समर्पित कर दें कि हमारे त्रैकालिक तत्त्व भगवान आत्मा का भावी अनन्तकाल ही संकट में पड़ जावे; मोक्षस्वभावी यह आत्मा अनन्त काल तक भवभ्रमण के लिए मजबूर हो जावे, यह कैसे उचित हो सकता है ? आखिर मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? कोई कह सकता है कि तुम्हारी उपलब्धियाँ नष्ट कहाँ हुईं, आज सभी कुछ तो सामने है। क्या नष्ट हुआ है? व आगामी कई पीढ़ियाँ तुम्हारी इन उपलब्धियों को भोगेंगी न! पर वे यह नहीं समझ पाते कि जिस आगामी पीढ़ी को वे मेरी पीढ़ी बतला रहे हैं, वह मेरी कहाँ है ? वह तो पुद्गल की पीढ़ी है, सचमुच तो जीवन के इस चौराहे पर जो कुनबा एकत्र हुआ है; अन्तर्द्वन्द/२५ उसमें न जाने कौन कहाँ से आया है तथा इस तात्कालिक सम्मेलन के बाद कौन कहाँ चला जायेगा, शायद फिर अनन्तकाल तक, कभी न मिलने के लिए। और हम हैं कि इन सभी से कितना गहरा लगाव महसूस करने लगते हैं। ___ त्रैकालिक दृष्टि रखने वाले संतों को हमारे यह क्रिया-कलाप वैसे ही बचकाने लगते हैं, जैसे हमें उन बालकों के क्रियाकलाप महसूस होते हैं, जो मात्र कुछ ही घण्टों की रेल यात्रा के दौरान मिले हुए अन्य बालकों के साथ इतना गहरा हार्दिक व मानसिक संबंध स्थापित कर बैठते हैं कि यात्रा की समाप्ति पर उनसे बिछुड़ने का प्रसंग आने पर किसी निकट संबंधी के मरण की सी छटपटाहट महसूस करने लगते हैं, विलाप करने लगते हैं। बड़े व समझदार लोगों के साथ ऐसा नहीं होता; क्योंकि वे तो पहले से ही जानते थे कि यह जो सम्पर्क स्थापित हुआ है, यह तो मात्र क्षणिक ही है, न तो इससे पहले हम उन्हें जानते थे और न इसके बाद कभी मिलेंगे; ये लोग जाने इतनी बड़ी दुनिया में कहाँ से आये हैं व कल कहाँ खो जावेंगे। हमारा जो दृष्टिकोण रेलयात्रा के क्षणिक साथियों के प्रति होता है, ज्ञानियों का वही दृष्टिकोण जीवन यात्रा के साथियों के प्रति भी होता है, क्योंकि अनादि-अनन्त इस आत्मा के जीवन में यह १००-५० वर्षों का एकाध भव एक दिन की रेलयात्रा से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता। यदि पीढ़ियों का ही विचार करना है तो मेरी पीढ़ियाँ तो मेरे आगामी भव हैं; जो अभी मुझे भोगने हैं। ___ अब यदि इस परिप्रेक्ष्य में मैं अपने क्रिया-कलापों को देखूगा तो स्वयं अपने आपको ठगा हुआ महसूस करूँगा। नैतिक-अनैतिक तरीकों से उपार्जित धन व जीवन की अन्य उपलब्धियाँ तो जहाँ की तहाँ रह जावेंगी व तद्जनित कर्मबन्धों की श्रृंखला अनन्त काल तक मुझे जकड़े रहेगी। क्या यह अपने स्वयं के साथ स्वयं का छलावा नहीं है? - अन्तर्द्वन्द/२६

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36