Book Title: Antardvand
Author(s): Parmatmaprakash Bharilla
Publisher: Hukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai

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Page 22
________________ अत्यन्त बलवती हो गई है, हो न हो फिर कभी मेरे इस जीवन में तेजस्वी सूरज उगे या न उगे । जब मैं युवा था, तब तो एक बड़ी दुविधा मेरा रास्ता रोक लेती थी। एक ओर मेरा यह जीवन, घर-परिवार व उसकी ज्वलंत समस्यायें, जो स्पष्ट व प्रत्यक्ष थीं और दूसरी ओर अदृश्य आत्मा और उसका तथाकथित काल्पनिक भावी अनन्तकाल । तब मैं किसे सम्भालता व किसकी उपेक्षा करता। यदि मैं आत्मा को महत्त्व देने का मन बनाता, तो मेरा ही अन्तर्मन पुकार उठता कि काल्पनिक भविष्य के लिए अपने साक्षात् वर्तमान को दाव पर लगा देना चाहते हो तुम और मैं तत्क्षण ही रुक जाता, भला मुझसे बेहतर यह कौन जान सकता है कि आत्मा के प्रति, स्वयं अपने प्रति मेरा यह सोच व व्यवहार मेरे मायाचार की पराकाष्ठा हैं। मैं स्वयं स्वयं पर ही प्रश्नचिह्न लगाता रहा, स्वयं के होने से, स्वयं के भविष्य से ही इन्कार करता रहा। पर मेरी यह दुविधा तो बीते कल की बात है, तब तो मेरी वर्तमान मनुष्य पर्याय का 'विस्तृत वर्तमान' भी था व 'सपनों का भविष्य' भी और उसके लिए तो मैं क्या क्या कर सकता था, क्या-क्या करना चाहिए था और क्या-क्या कर पाया, क्या न कर पाया; उसके समस्त परिणाम तो सामने हैं, पर आज की तो बात ही कुछ और है। आज ७५ वर्ष की इस उम्र में न तो मैं वर्तमान में ही प्रासंगिक रह गया हूँ और न ही मेरा कोई भविष्य है। अब यदि करने को कुछ रह जाता है तो वह है मात्र इस अनादि अनंत आत्मा के भविष्य का इन्तजाम; पर यह कोई साधारण काम तो है नहीं। यह तो अत्यन्त पुरुषार्थ और सावधानी कार्य है। सच्चे मार्ग की समझ, सच्चे गुरु की खोज, निरन्तर तत्त्व अभ्यास, स्वाध्याय व सत्संग। इन सभी गतिविधियों के लिए तो भरपूर उर्जा की आवश्यकता है; अब आज मैं यह सब करना भी चाहूँ तो कैसे कर पाऊँगा । आज तो मैं अपनी दैनिक जीवन की आवश्यक क्रियायें भी स्वतंत्र पने कर पाने में सक्षम नहीं हूँ, तब आत्मा के अनन्तकाल के परिभ्रमण को नाश अन्तर्द्वन्द / 3७ 19 करने का पुरुषार्थ कैसे कर पाऊँगा ? यही बात यदि दश-बीस वर्ष पहले समझ में आ जाती, यदि मैं तब समझ पाता कि इस मानव पर्याय का १०-२० वर्ष का भविष्य कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण दौर नहीं है, जिसकी सम्भाल में यह जीवन झोंक दिया जाय । इस जीवन का प्रत्येक पल तो अपने भावी अनन्तकाल का इन्तजाम करने के लिए है, तो क्या आज मैं उस मुकाम पर खड़ा नहीं होता; जहाँ से मुक्ति का मार्ग, मुझसे अत्यन्त समीप ही होता । सारा जीवन तो गोरखधंधे में बीत ही गया व वर्तमान बीता जा रहा है। उसके लेखे-जोखे में, अवसाद में; मेरा भविष्य भी क्या होगा ? यदि अब भी सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो क्या मेरा अनन्त भविष्य भी, अनन्त अन्धकार में खो नहीं जावेगा ? तब मैं क्या करूँ ? अबतक विगत के लिए बिलखा, क्या अब आगत के लिए क्रन्दन करूँ ? क्या क्रन्दन ही मेरी नियति है ? नहीं! नहीं!! कदापि नहीं !!! आज जब मैंने आत्मा की अथाह अनन्तता को स्वीकार कर ही लिया है; तब १०० - ५० वर्षों के लिए अफसोस कैसा ? सिर्फ यही १००-५० वर्ष तो बर्बाद नहीं हुए हैं, अनादिकाल से आज तक सभी कुछ तो इसीतरह बीता है तो क्या अनन्तकाल तक रोता ही रहूँगा ? जिसतरह अनादि से कल तक 'अनन्तकाल' बीता था, वैसे ही एक और 'आज' बीत गया; उस अनन्तकाल के सामने इस एक दिन या १००५० वर्षों की क्या अहमियत है कि अब उसके चिन्तन में मैं अपने आगामी अनन्तकाल को और अन्धकारमय बना डालूँ। और फिर लुट क्या गया है? यह मानवदेह भले ही कुछ दिनों की सही, पर मेरा तो अनन्तकाल पड़ा है न, आत्मा तो अनन्तकाल तक रहेगा न; और अनादि के अन्धकार को मिटाने के लिए अनन्तकाल की आवश्यकता ही कहाँ है ? अन्तर्मुहूर्त में ज्ञान सूर्य उदित हो जावे तो अनादि का अन्धकार भाग जाता है, विलीन हो जाता है। ... जिसकी अन्तर्मुहर्त की आग अनादि की विराधना को निष्फल अन्तर्द्वन्द / 3८ कर देती है; ऐसा एक, अखण्ड - अनन्त, अनादि-अनन्त भगवान आत्मा मैं स्वयं ही तो हूँ और यूँ तो अनन्तकाल पड़ा है, उसकी उपासना के लिए;

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