Book Title: Antardvand
Author(s): Parmatmaprakash Bharilla
Publisher: Hukamchand Bharilla Charitable Trust Mumbai

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Page 31
________________ अबतक उसने जो साधन, लोग व वातावरण अपने इर्दगिर्द जुटाए थे, वे सर्वथा उसके अनुकूल थे, पर जब वह स्वयं ही बदल गया तो सबकुछ मिसफिट हो गया। .....सामंजस्य बिगड़ने के फलस्वरूप उत्पन्न विपरीत पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके लक्ष्य की पूर्ति में बाधक ही होती। अन्त समय में उसकी सारी दौलत मिलकर भी उसके लिए जीवन के कुछ क्षण भी न जुटा सकी। ......दौलत बटोरने में वह इतना व्यस्त था कि उस दौलत के उपभोग के लिए भी उसके पास समय न था। ....चटोरी जीभ के लिए दुनिया भर के भक्ष्य-अभक्ष्य खायेंगे और पेट के मथ्थे मड़ देंगे। “पापी पेट के लिए"......दुनिया भर को झूठ-सा कहेंगे व कह देंगे, पापी पेट के लिए.....। .....यदि सभी अपने हाथ में धर्मकांटा लिए घूमते तो दुनिया की ये हालत न होती। .....और उद्देश्यहीन होने से यह दौड़ अन्तहीन है। उसके वक्तव्य में ऐसा गलत कुछ भी नहीं था, जो किसी को न जंचे। संगत था, सरल था, तर्कपूर्ण यथार्थ था, पर उससे सहमत होने का मतलब था; अबतक जो चल रहा है, उसे रोक देना, कल से दूसरा मार्ग अपनाना........और यह सब अनन्त पुरुषार्थियों के लिए ही सम्भव है, वह भी गम्भीर चिन्तन व मनन के बाद.... । ......न सही अपने लिए पर देश, समाज व परिवार के प्रति भी तो हमारी कोई जबावदारी है ? जिस देश के हम नागरिक हैं व जिस देश का पैदा किया अनाज खाते हैं, उस देश के लिए क्या हमारा कोई उत्तरदायित्व ही नहीं है ? यदि सभी लोग इनकी ही तरह विचार करने लगें तो देश का क्या होगा? ...पर आज जब लक्ष्मी स्वयं चांदला करने आई है, तब उसे ठुकराने जैसे दुर्भाग्यपूर्ण विचारों का मन में आना उन्हें किसी आगत विपत्तियों का संकेत दिखा देता था। • उनके मन में विनाश करते विपरीत वृद्धी जैसी अनेक उक्तियाँ कौंध उठती थीं। अभी तो इन विचारों का क्रियान्वयन कब होगा कभी होगा भी या नहीं? यह भी कोई नहीं जानता था; क्योंकि ऐसे क्षणिक विकारी परिणाम तो कई बार लोगों के दिलोदिमाग में आये और चले गये, पर हम शूरमाओं का आजतक क्या बिगाड़ सके, परन्तु पिताजी को ऐसे विचारों की उत्पत्ति मात्र से ही सख्त ऐतराज था...... । • इस मामले में माताजी ज्यादा प्रेक्टीकल थीं । जहाँ उनका बस न चलता जो-जो देखी वीतरागने का सहारा लेकर वे सचमुच सारी चिन्ताओं का पिटारा वीतराग की ओर धकेलकर निश्चिन्त हो जातीं और आज भी यही हुआ। • पिताजी करवटें ही बदलते रहे और वे वीतराग प्रभु की नींद हराम कर स्वयं गहरी नींद के सुपुर्द हो गई थीं। ....कितने निष्ठुर हो तुम । इतनी मेहनत व लगन से यह व्यापार स्थापित किया है और जब वह फल देने लगता है तो उस फलते-फूलते वृक्ष को काट डालना चाहते हो ? ये भी नहीं सोचा कि तुम अकेले नहीं हो...। • आज की इस स्थिति में पहुँचने में मेरा भी योगदान कम नहीं है और मैं यह सब इसतरह उजड़ नहीं जाने दूँगी.......कम से कम अपने बच्चों का तो ख्याल किया होता............तुम्हारा क्या है ? तुम तो वैसे ही संन्यासी हो। जब कुछ भी नहीं था तब भी तुम्हें कोई तकलीफ नहीं थी, जब सबकुछ है, तब भी तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, फिर कुछ न कुछ रहेगा तो तुम्हें क्या ? पर हम सब तो वैरागी नहीं हो गये हैं 28

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