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उन लक्ष्यों की पूर्ति करने वाली जीवनशैली नहीं अपनानी चाहिए थी? तब फिर हम सभी ऐसा क्यों नहीं करते ? क्यों नहीं स्वयं अपनी जीवन शैली का निर्माण करते ? क्यों नहीं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करते? क्यों छोड़ देते हैं अपने इस जीवनरूपी तिनके को संसाररूपी सागर में स्वच्छन्द (भाग्य भरोसे) विचरण के लिए, जिसका न कोई लक्ष्य है न अपने आप पर कोई नियंत्रण।
यदि हम स्वयं अपने आपको इतना सक्षम नहीं मानते कि स्वयं विचारपूर्वक अपनी रीति-नीति और दिशा तय कर सकें व अनुसरण करना ही हमारी नियति हो, मजबूरी हो तो भी क्या अनुसरण भी विचार पूर्वक नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें सुपात्रों का अनुसरण नहीं करना चाहिए ? क्या हम कुछ आदर्श पात्रों का चुनाव नहीं कर सकते थे, जिन्होंने अपने जीवन के लक्ष्य निर्धारित किये थे और फिर उन्हीं लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपने जीवन की एक विशिष्ट शैली निर्धारित की थी, कुछ सिद्धान्तों का पालन किया था ? और अन्ततः हम भी उन पात्रों के समान अपने लक्ष्य को हासिल कर सकते थे।
हमने अनुसरण भी किया तो वह भी भीड़ का। भारी भीड़ में खड़े एक जनसामान्य की मानसिकता का अनुसरण किया, उसकी ही विचारधारा अपना ली, उसके जैसा ही आचरण करने लगे, उसके जैसी ही क्रियायेंप्रतिक्रियायें व्यक्त करने लगे; पर क्या कभी विचार किया कि ऐसा करके हम क्या पा सकेंगे? ___ अरे और क्या पा सकेंगे भीड़ का अनुसरण करके तो हम मात्र भीड़ का ही हिस्सा बन सकते हैं, एक अदना-सा हिस्सा, लाखों लोगों जैसा; पर लाखों में मात्र एक, जिसकी शायद कोई अहमियत ही नहीं, कोई गिनती ही नहीं। अरे भीड़ में हजारों की तो कोई गिनती ही नहीं होती, हम कहते हैं न कि १०-१५ हजार लोग थे। मानों, जैसे १० हजार वैसे १५ हजार । ५ हजार कम या ज्यादा ! क्या फर्क पड़ता है ? जिन पाँच-दस
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हजारों की कोई गिनती ही नहीं, हम उनमें से एक बनकर रह जायेंगे। ___ यदि हम भीड़ का अनुसरण करेंगे तो भीड़ जैसे ही बन पायेंगे, कुछ विशिष्ट नहीं बन सकते। यदि हमें अनुसरण ही करना है तो उस विशिष्ट व्यक्ति का अनुसरण क्यों नहीं करें, जिसके इर्द-गिर्द यह लाखों की भीड़ मंडरा रही है? __ यदि हम विशिष्ट का अनुसरण करें तो विशिष्ट बन सकते हैं; पर इस सबके लिए तो चिन्तन की आवश्यकता है न !
दरअसल मैंने अपने लिए विचारपूर्वक कोई मार्ग चुना ही नहीं, बस अन्जाने ही अपने इर्द-गिर्द जो पाया, उसका अनुसरण करता चला गया और इसी का परिणाम है कि आज मैं इस मुकाम पर खड़ा हूँ। सारा जीवन गुजार लेने के बाद आज मैं पाता हूँ कि जीवन की उपलब्धि के नाम पर आज मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका दो वाक्यों में भी बयान कर सक।
यूँ कहने को तो लोग बहुत कुछ कहते हैं, मेरे जीवन की उपलब्धियों का बखान करते थकते ही नहीं और मैं भी अबतक उनकी बातों में आता रहा। वे बहलाते रहे और मैं बहलता रहा, गद्गद् होता रहा और अपनी उपलब्धियों को, अपने आपको महान समझता रहा । ठीक उन छोटे-छोटे बालकों की भांति जिनके क्रिया-कलाप न तो किसी भी मायने में विशिष्ट होते हैं और न ही किसी के लिए कोई खास मायने रखते हैं, फिर भी वे जो भी हरकतें करते हैं, हम बड़े लोग उनकी सराहना करते-करते थकते नहीं व उस सराहना से अभिभूत वे बालक अपनी उन बाल सुलभ क्रीड़ाओं को अपनी महान उपलब्धि समझते रहते हैं।
चूँकि जगत उन्हें उपलब्धि मानता है। मात्र इसलिए यदि मेरे क्रियाकलापों को भी उपलब्धियाँ मान लिया जावे तो भी ये उपलब्धियाँ मात्र तात्कालिक ही तो थीं, उनका कोई दीर्घकालिक या त्रैकालिक महत्त्व तो था नहीं। जैसे कि कोई खिलाड़ी खेल खेलता है व जीत जाता है तो वह
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