Book Title: Anekant aur Syadwad
Author(s): Udaychandra
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 9
________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : ७ यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः। -समयसार १०।२४७, आत्मख्याति जो वस्तु तत्स्वरूप है वही अतत्स्वरूप भी है, जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है वही असत् भो है। तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तुके वस्तुत्वके कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलोंका प्रकाशन अनेकान्त है। और भी देखिएसदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः । देवागम-अष्टशती कारिका १०३ वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है इसप्रकार सर्वथा एकान्तके निराकरण करनेका नाम अनेकान्त है। इसप्रकार अनेकान्तमें परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले दो धर्म रहते हैं। और इसप्रकार परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले दो-दो धर्मोके अनेक युगल ( जोड़ा ) वस्तुमें पाए जाते हैं। जैसे नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् इत्यादि । इसलिए परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मोंके समूहरूप वस्तुको अनेकान्त कहने में कोई विरोध नहीं है। वस्तु केवल अनेक धर्मोंका ही पिण्ड नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी दिखनेवाले अनेक धर्मोंका भी पिण्ड है। प्रत्येक वस्तु विरोधी धर्मोंका स्थल है। वस्तुका वस्तुत्व विरोधी धर्मों के अस्तित्वमें है। यदि वस्तुमें विरोधी धर्मं न रहें तो वस्तु ही समाप्त हो जाय । यदि वस्तु सर्वथा एकरूप हो तो वह कुछ भी अर्थक्रिया ( कार्य ) नहीं कर सकेगी और अर्थक्रियाके अभावमें वह वस्तु रह हो कैसे सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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