Book Title: Anekant aur Syadwad
Author(s): Udaychandra
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 25
________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : २३ स्याद्वादका कार्य स्याद्वादका मुख्य कार्य है संसारके सामने वस्तुके यथार्थ स्वरूपको प्रकट करना और पूर्ण सत्यको समझाना । स्याद्वाद अनेकधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन करता है। लेकिन वह प्रतिपादन क्रमशः होता है। स्याद्वाद एक समयमें मुख्यरूपसे एक धर्मका हो प्रतिपादन करता है और शेष धर्मोका गौणरूपसे द्योतन करता है। जब कोई कहता है कि 'स्यादस्ति घटः' घट कथंचित् है तो यहाँ 'स्यात्' शब्द घटमें अस्तित्व धर्मकी विवक्षाको बतलाता है कि घटका अस्तित्व किस अपेक्षासे है। वह बतलाता है कि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे घटका अस्तित्व है। इसके साथ वह यह भी बतलाता है कि घट सर्वथा अस्तिरूप ही नहीं है किन्तु अस्तित्व धर्मके अतिरिक्त उसमें नास्तित्व आदि अनेक धर्म भी हैं। उन्हों अनेक धर्मों की सूचना ‘स्यात्' शब्दसे मिलती है। अतः वह एक निश्चित् अपेक्षावादका सूचक है। एक ही वस्तु अनेक दृष्टिकोणोंसे देखी जा सकती है। उन अनेक दृष्टिकोणोंका प्रतिपादन स्याद्वाद के द्वारा किया जाता है। स्याद्वाद पूरी वस्तु पर एक ही धर्मके पूर्ण अधिकारका निषेध करता है। वह कहता है कि वस्तु पर सब धर्मोंका समानरूपसे अधिकार है। विशेषता केवल इतनी है कि जिस धर्मके प्रतिपादनकी जिस समय आवश्यकता होती है उस समय उस धर्मको पकड़ लेते हैं और शेष धर्मोको ढीला कर देते हैं। जैसे कि दधिमन्थन करनेवाली गोपी मथानेकी रस्सीके एक छोरको खींचती है और दूसरे छोरको ढील देती है। इसप्रकार वह रस्सीके आकर्षण और शिथिलीकरणके द्वारा दधिका मन्थन कर इष्ट तत्व घृतको प्राप्त करती है। स्याद्वादनीति भी एक धर्मके आकर्षण और शेष धर्मों के शिथिलीकरणके द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थकी सिद्धि करती है। कहा भी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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