Book Title: Anekant aur Syadwad
Author(s): Udaychandra
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 13
________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : ११ न सर्वथा असत् । किन्तु सत् और असत् दोनों है । तथा इस प्रकार मान में कोई विरोध भी नहीं है । घट यहां उपलक्षण है । घटके द्वारा यहाँ समस्त पदार्थोंका ग्रहण करना चाहिए। जिस तरह घट सदसत् दोनों रूप है उसी तरह समस्त पदार्थ सदसत् हैं । जो लोग पदार्थको सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् कहते हैं वे एकान्तवादी हैं | पदार्थको सर्वथा सत् कहनेका अर्थ होगा कि घट जिस प्रकार अपनी अपेक्षासे सत् है उसी प्रकार पट आदिकी अपेक्षासे भी सत् है । और सर्वथा असत् कहनेका अर्थ होगा कि जिस तरह घट पट आदिकी अपेक्षासे असत् है उसी तरह अपनी अपेक्षासे भी असत् है । लेकिन सर्वथा सदैकान्तमें और सर्वथा असदेकान्तमें किसी प्रकारकी व्यवस्था नहीं बन सकती है । इसलिए एकान्तवादका दुराग्रह छोड़कर अनेकान्तका आश्रय लेना ही श्रेयस्कर है । उक्त कथनसे यह सिद्ध हुआ कि वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दो विरोधी धर्म पाए जाते हैं । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि वस्तु ऐसे अनेक विरोधी धर्मो का अविरुद्ध स्थल है । एक वस्तुमें अनेक विरोधी धर्म अविरोधरूपसे रहते हैं । वस्तुमें केवल सत्त्व और असत्त्व धर्म ही नहीं रहते किन्तु नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व आदि धर्म भी एक ही समय में रहते हैं । संसारका प्रत्येक पदार्थ नित्य और अनित्य दोनों है । कोई भी पदार्थ सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है । यह तो सबके देखने में आता है कि घट आदि पदार्थ कुछ काल तक स्थिर रहते हैं और बाद में नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकारकी अनित्यताका अनुभव तो प्रत्येक व्यक्ति करता है । लेकिन इससे भिन्न एक दूसरे प्रकारक अनित्यता है जो सबके अनुभवमें नहीं आती है । वह अनित्यता है पदार्थों का प्रतिक्षण परिणमन । संसारका ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसका क्षण-क्षणमें परिणमन न होता हो । वस्त्र धुलने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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