Book Title: Anekant 1977 Book 30 Ank 01 to 04 Author(s): Gokulprasad Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 4
________________ मध्यप्रदेश में मध्ययुगीन जैन शिल्पकला 0 डा० शिवकुमार नामदेव, माडला भारत की प्राच्य संस्कृत के लिये जहा जैन साहि- मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवश कलचुरियो के काल त्य का अध्ययन प्रावश्यक है वही जैन कला के अध्ययन का में उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप अन्य मतों के भी कुछ कम महत्व नहीं है। जैन कला अपनी कुछ विशिष्ट साथ-साथ जैन धर्म भी फला-फुला'। कलचरि-युगीन जैन विशेषतामों के कारण भारतीय कला मे एक अद्वितीय प्रतिमायें अड़भार, पारग, पेन्डा, मल्लार, रतनपुर, सिंहपुर स्थान रखती है। जैन धर्म की स्वणिम गौरव-गरिमा की एवं शहपुरा प्रादि स्थलों से प्राप्त हुई है । उपलब्ध प्रतिप्रतीक प्रतिमायें, पुरातन मंदिर, विशाल स्तभादि प्राचीन मानों में सर्वाधिक प्रतिमाये प्रथम तीर्थंकर प्रादिनाथ की भारतीय सभ्यता एवं संस्कृत के ज्वलंत उदाहरण है। है। कारीतलाई (जबलपुर) से तीर्थंकरों की द्विमूर्तिकायें प्रतीत उनमें अंतनिहित है। प्रत्येक जाति और समाज की भी प्राप्त हुई है। उन्नत दशा का वास्तविक परिचय इन्हीं खडित अवशेषों कलचुरिकानीन तीर्थकर प्रतिमायें प्रासन एवं स्थानक के गंभीर अध्ययन, मनन और अन्वेषण पर अवलंबित है। मुद्रा में प्राप्त हुई है। तीर्थंकरो की संयुक्त प्रतिमायें भी सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा एव अभिवद्धि में साहित्यकार इस कला में उपलब्ध हुई हैं । जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर जहां लेखनी के माध्यम से समाज में अपने भावो को व्यक्त ऋषभनाथ की सर्वाधिक मूर्तियां कारीतलाई से प्राप्त हुई करता है, वही कलाकार पार्थिव उपादानो के माध्यम द्वारा प्रतिमायें श्वेत बलूपा पाषाण से निर्मित की गई है। मात्मस्थ भावों को अपनी सधी हुई छेनी से व्यक्त करता है। उक्त स्थल से प्राप्त ४१' ऊँची ऋपभनाथ की प्रतिमा मध्यप्रदेश के अतीत की कहानी का विश्लेषण करना मे भगवान को उच्च चौकी पर पद्मासन मे ध्यानस्थ बैठे सुगम नहीं है। प्राच्य युग से ही यह प्रदेश भारत की गौरव हुए दिखाया गया है । उनकी दक्षिण भुजा एव वाम घुटना मयी संस्कृत के चहमखी विकास का क्षेत्र रहा है। खंडित है। हृदय पर श्रीवत्स एव मस्तक के पृष्ठभाग में विवेच्ययुगीन शिल्पकला इम विस्तृत प्रदेश के विभिन्न तेजोमण्डल है। तेजोमण्डल के ऊपर विछत्र सौन्दर्यपूर्ण भागों में बहुतायत से उपलब्ध हुई है। उपलव्य शिल्पकला ढंग से बना है, जिसके दोनों पार्श्व में एक-एक महावतइस बात की पोर इगित करती है कि मध्य युग में इस युक्त हाथी उत्कीर्ण है। छत्र के ऊपर दु दुभिक एव हाथियों विशाल प्रदेश में जैन धर्म का अच्छा वर्चस्व था। के नीचे युगल विद्याघर हैं जो नभमाग से पुष्प-वृष्टि कर मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवश कलचुरियो, परमारों एव रहे है। विद्याधरो के नीचे दोनो पार्श्व पर भगवान के चंदेलों के काल में उनकी धार्मिक सहिष्णता के फलस्वरूप परिचारक सोधर्मेन्द्र एव ईशानेन्द्र अपने हाथो मे चवर अन्य धर्मों की भांति जैन धर्म भी पूष्पित एवं पल्लवित लिए हुए खड़े है। होता रहा। अखिल भारतीय परंपरानो के साथ-साथ प्रतिमा की चौकी पर अलकृत पड़ी झूल पर ऋषभमध्यप्रदेश की अपनी विशेषतामों को भी यहां की कला में नाथ का लाछन वृषभ अङ्कित है। वृषभ के नीचे चौकी उचित स्थान दिया गया । के ठीक मध्य मे धर्मचक्र अडित है, जिसके दोनों ओर १. कलचुरिकाल म जन धर्म-शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, अगस्त १९७२); कलचरिकाल में जैन धर्म की स्थिति शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, जुलाई-अगस्त १९७३) । २. वारीतलाई की अद्वितीय भगवान ऋपभनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव (अनेकान्त, अक्टूबर. दिसम्बर १९७३)।Page Navigation
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