Book Title: Anekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ जंन वर्शन को अनेकान्तवादी दृष्टि त क जगह छह प्राधों ने एक निरूपण करती है। इतना स्मरण रहे कि एक-एक प्रश कोपरकर प्रपने-अपने स्पर्शानुभव से उसके स्वरूप प्रश है अशी नही। अतः मब मिलकर ही पूर्ण सत्य कहे की अवधारणा की। जिगने हाथी के पैर पकड़े उसने जात है। कहा कि हाथी खम्भे जमा है। जिसने पूछ पकड़ो वह एक दृष्टान्त और दिया जाता है । एक सम्पन्न व्यक्ति चिल्लाकर कहने लगा कि हाथी रस्सा जैसा है। जिसने था उस के बहुत दिन बाद पहले-पहल पुत्री का जन्म हमा। उसकी छाती पकडी यह बोला कि हाथी तो दीवाल जैमा उस पर उसका है। चौथा बोला कि नही, हाथी तो खूटी जैसा है । इसने खेलने के लिए सोने का एक छोटा घडा बनवा दिया। हाथी के दांत पकडे थे। पांचवा कहने लगा कि हाथी मूसल लडकी उस घड़े से पानी भरती और रोज खेलती थी। की तरह है। इसने उसकी सढ ही पकड़ी थी। छठा कुछ वर्षों बाद उसके पुत्र का भी जन्म हो गया। खुब बोला. सब तम झठ बोलते हो, हाथी तो सूप जसा है। खुशी मनाई गई। जनसरका छ बहरहा तो लड़की इसने उसके कान पकड़े थे। इसी बीच एक प्रादमी प्राया, के उस घडे को तुडवा कर लड़के के लिए मुकूट बनवाने जिसने अपनी पाखो से हाथी को देखा था। बोला - को वह सुनार के यहा गया । लड़की घड को तुडते देखकर भाई ! तुम सब ठीक ही कहते हो, अपनी-अपनी अपेक्षा खिन्न होती है और लडका मुकुट बनते देखकर हर्षित तुम सब सही हो, पर इतर को गलत मत कहो, सबका होता है। परन्तु उस व्यक्ति को न विपाद होता है और मिलाने से ही हाथी बनता है । इतर का निराकरण करने न हर्ष । वह दोनो मे मध्यस्थ रहता है। यदि सोन मे पर तो हाथी का स्वरूप अपूर्ण रहेगा । स्याद्वाद कहता विनाश धर्म, उत्पादधर्म और स्थितिधर्म न हो तो उन तीनो है कि अनित्यवाद, नित्यवाद, सद्वाद और असद्वाद प्रादि को तीन प्रकार के भाव पैदा नही हो मते, इससे स्पष्ट वस्तु के एक-एक अंश के प्रकाशन है और यह तथ्य है कि है कि वस्तु उत्पन्न होती है, विनष्ट नहीं होती है और अनित्य-नित्य, सद्-असद् प्रादि युगल धर्मों का उसमें स्थिर भी रहती है। कि.मी अश से (पूर्व पर्याय से) सद्भाव है। विनाट होती है, किसी अश (उत्तर पर्यास ) से उत्पन्न एक फोटो ग्राफर ने एक भवन का पूर्व की अोर से, होती है और किसी प्रश (धाव्य) से स्थिर रहती है। दूसरे ने पश्चिम की भोर से, तीसरे ने दक्षिण की पोर से घटमौलिस्वर्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । और चौथे ने उत्तर की ओर से फोटो लिया। चारों के शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो यातिसहेतुकम् ।। फोटो एक ही भवन के है और चारो फोटो एक दूसरे से -ग्रा. मी. ५९ भिन्न है । बताइये इनमे कौन सत्य है मौर कौन प्रसत्य । मेरे हाथ मे एक ग्राम का फल है। अखिो से देखता स्पष्ट है कि चारो फोटो सत्य है, जो विभिन्न दिशामों से हूं तो वह पीला ज्ञात होता है । रसना इन्द्रिय से उसे लिए गये है। इतना ही है कि वे सत्य के एक-एक प्रश चखता हूँ तो मीठा लगता है। घ्राण म सूघता हूं है, प्रत्येक पूग सत्य नही है। सबको मिलने पर ही वे तो वह मादक (अच्छी गन्ध वाला) प्रतीत हाता और पूर्ण सत्य कहे जावेंगे और तभी पूरा भवन उनमे बोषित स्पर्शनेन्द्रिय से स्पर्श करता हूँ तो वह कोमल प्रवगत होगा। यह बात दूसरी है कि एक अोर से लिए फोटो से होता है । यदि पाम मे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार भी उस पूरे भवन का बोध कराया जा सकता है किन्तु धर्म न हो तो वह विभिन्न इन्द्रियो से विभिन्न प्रतीत यह भी तथ्य है कि तब शेष का निषेध नही होता। यदि नही हो सकता। निबन्ध किया जायेगा तो परस्पर संघर्ष होगा और भवन ___ अनेकान्त दृष्टि किसी का भी विरोध नही करती। का सही बोध नही हो सकेगा। अनेकान्तवादी दृष्टि इस वह सबके अस्तित्व को स्वीकार करती है। मनुष्य पापी, संघर्ष को दूर करती है और उन सबके सत्य होने का चोर, डाकू और साधु सब हो सकता है। किन्तु पापी १. पुरुषा. सि. २। पाप करने से, चोर चोरी करने से, डाकू डाका डालने से

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