Book Title: Anekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ धनेकान्त १४ व २५, कि० १ १.२.गल, २. मैथिली ४ बड़ी पोषी गिल को राजस्थानी भी कहते हैं। प्रारम्भ मे पश्चिमी हिन्दी का जो रूा था उस रूप से राजस्थानी और गुजराती की उत्पत्ति हुई है। डा० 'टोसटोरी' का मत है कि पन्द्रहवीं शताब्दी तक पश्चिमो राजपुताना और गुजरात में एक ही भाषा बोली जाती थी, इसे वे प्राचीन भाषा कहते है। यही भाषा गुजराती भोर मारवाड़ी का मूल रूप है । प्राधुनिक भार्य भाषाधों की उत्पत्ति प्रपभ्रंश भाषा से ही हुई है । जैसे : शौरसेनी से हिन्दी, गुजराती राजस्थानी पंजाबी और पहाड़ी भाषाएं मागधी अपनश भाषा से -विहारी बगला, घासामी, उड़िया । " " मागधी अपभ्रंश भाषा से पूर्वी हिन्दी । - महाराष्ट्री (मराठी) आदि महाराष्ट्री आधुनिक घार्य-भाषा का तेरहवी शताब्दी के ल भाग से साहित्य मे प्रयोग होने लगा था। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थो में इनका उल्लेख अपभ्रंश और अपभ्रंश के रूप मे किया गया है। अधिकांश संस्कृत विद्वानों ने 'प्रपभ्रंश' पशब्द का ही प्रयोग किया है। अपभ्रष्ट का उल्लेख प्रति म्यून रूप में है। विष्णुधर्मोत्तर पुराएको में ही 'अपभ्रष्ट' संज्ञा का व्यवहार किया गया है किन्तु 'शन्प्रन्थों में 'प्रवव्यंस, अवहंस, अवहत्थ, अवहट्ट वयादि नाम भी मिलते है। परवर्ती कवियों द्वारा इन शब्दों का प्रयोग अधिकतर किया गया है। 'प्रवहट्ट' का प्रथम प्रयोग ज्योतिशिखर ठाकुर के '' (१३२५ ई०) में वहाँ राज सभा में भार द्वारा षट् भाषाभों की गणना की जाती है। 'विद्यापति' ने कीर्तिलता को अपनी भाषा की प्रशंसा करते हुए उसे '' कहकर पुकारा है। प्राकृत 'पंगलम्' के टीकाकार श्री वंशीधर की सम्मति में प्राकृतको भाषा ही है ( पृ० ३) कुवलयमाला के रचनाकार उद्योतनसूरि ने 'प्रवहंस' शब्द का प्रयोग किया है 'सन्देश रासक' के रचयिता 'सम्दुल रहमान ने भी 1 अपने काव्य की भाषा को 'अ' कहा है 'हंस' शब्द का प्रयोग प्रवम्भ के रूप में भी हुआ है । 'पुष्पदन्त' 'संस्कृत और प्राकृत' के साथ 'प्रवहंस' की गणना करते है स्वयंभूदेव अपनी रामायण में इसे '' कह कर पुकारते हैं। 'भरतमुनि' ने तत्कालीन साठ भाषायों का निर्देश किया है "मागध्यवतापाच्या कौरसेपमधी बालीका, दक्षिणात्या च सप्त भाषा प्रकीर्तिताः ।” (१७-४२) अनेक भाषायें निम्नलिखित शमीर पांडाल सर मिला । "शवरों प्रभीरों चाण्डालों प द्राविड़ों श्रोहों प्रोर हीन जाति के वनचरो की बोलियाँ ( प्रथक् ) है ।" और "रावर तथा घनोसी जगली-भाषा का प्रयोग अंगारकारों कोयला बनाने वालों, शिकारियों प्रोर काष्ठ-यन्त्रों द्वारा जीविका उपार्जित करने वाले व्यक्तियों द्वारा तथा श्राभीरोक्ति और शावरी का उपयोग गो, अश्व, ऊंट प्रादि-पालक और घोष निवासी ग्वालों के गाँव में रहने वाले जनों द्वारा किया जाता है।" भरतमुनि के उपरोक्त लेख मे अपश का स्पष्ट नाम नहीं पाया है। ऐसा अनुमान होता है कि भरतमुनि के समय तक किसी भाषा को 'अपभ्रंश' की सजा नहीं दी गई थी। इससे अनुमान होता है कि अपभ्रंश का विकास उस कोटि तक नहीं हो पाया था कि जिसे भाषा की संज्ञा दी जा सके, किन्तु भविष्य में मभीरोक्ति को ही अपभ्रंश की संज्ञा प्राप्त हो गई । भरतमुनि ने नाटयकारों के लिए स्पष्ट लिखा है कि "विभिन्न प्रदेश निवासी पात्रों द्वारा किस प्रकार की बोली प्रयुक्त की जाय - गंगा और सागर के मध्य बोली ( भाषा 'ए'कार बहुल है। हिमालय और सिन्धु तथा सौबीर के तटीय प्रदेश की भाषा 'उ' कार बहुला है। विन्ध्याचल श्रोर सागर ( मोरल्लड नच्चन्तउ ) इत्यादि के मध्य की भाषा 'न' कार बहुला है। चर्मवती के उस पार तथा अर्बुद के तटीय प्रदेश की भाषा 'ट' कार बहुल है। सम्भवतः भरत की 'उ' कार बहुला ही 'प्रभोरोक्ति' अपभ्रंश रही होगी। भरतमुनि ने उदाहरण स्वरूप '४' बार बसा ही को प्रीति शाहे ि

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