Book Title: Anekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 7
________________ ४, वर्ष २५, कि० १ अनेकान्त वह दाहक भी है. पनक भी है और प्रकाशक पादि भी। ही है कि जिसकी विवक्षा होती है वह मुख्य और जिसकी इस तरह प्रग्नि मे जहाँ दाहकण है वहाँ उसमे पाचकता, विवक्षा नही होती वह गौण हो जाता है। जैन दार्शनिक प्रकाशकता प्रादि अनेक स्वभाव (धर्म) विद्यमान है। या प्राचार्य समन्तभद्र' स्पष्ट कहते है कि विवक्षित मुख्य यो कहिए कि वह दाहकता प्रादि अनेक स्वभावा का कहा जाता है पौर जिनकी विवक्षा नहीं है वे गौण कहे यह समुच्चय नगशि क समान संयोगात्मक जाते है, उनका प्रभाव नही होता । परन्तु इससे वस्तु का नही है वह अविष्वग्भाव तादात्म्य रूप है और अग्नि की अनेकाम्न स्वरूप समाप्त नहीं होता। इसी से जैन दर्शन दाहकता उसके पाचकता प्रादि स्वभावो से न सर्वथा मे वस्तु के अभिघायक वचन को स्यावाद वचन या स्यावाद भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न । सभी स्वभाव उसमें वाणी कहा गया है। स्थाद्वाद वचन के द्वारा यह व्यक्त अपने-अपने रूप में मित्रतापूर्वक वर्तमान है और वे सभी किया जाता है कि अमुक वस्तु अपेक्षा से अमुक ही है, उसकी प्रात्मा (प्रपना स्वरूप) है। उनका यह सबंध अन्य अपेक्षामों से वह अन्य रूप ही है। स्याद्वाद वचन वस्तु कथं चित् भिन्नाभिन्न अथवा सह-अस्तित्वात्मक है। के न तो किसी धर्म का लोप होने देता है और न प्रव्य. एक उदाहरण और लीजिए । एक ही पुरुष एक साथ वस्था पैदा करता है । तत्तद् प्रपेक्षामो की विवक्षामों से वह भिन्न-भिन्न पुरुषों की अपेक्षा पिता, पुत्र, मामा, भानजा, उन सब धर्मों की यथा स्थान यथा समय और यथा विधि दादा नाती, बड़ा, छोटा प्रादि व्यवहृत होता है । पुत्री से व्यवस्था करता है। वह कहता है कि वस्तु अनेकान्त की अपेक्षा पिता, अपने पिता को अपेक्षा पुत्र, भानजे की है-तद् और प्रतद रूप विरोधी युगल धर्मो को वह मामा, अपने मामा की अपेक्षा भान जा, नाती की अपेक्षा अपने मे समाये हुए है । कोई वचन, चाहे विधिपरक हो दादा, दादा की अपेक्षा नाती, छोटे की अपेक्षा बडा और और चाहे निषेधपरक, वस्तु के अनेकान्तस्वरूप का लोप बड़े की अपेक्षा छोटा प्रादि कहा जाता है। इस तरह करके मनमानी नहीं कर सकता। यदि विधिपरक या उसमें पितृत्व-अपितृत्व, पुत्रत्व-मपुत्रत्व, मातुलत्व-प्रमातु- निषेधपरक वचन क्रमशः केवल विधि या केवल निषेध लत्व, भागिनेयत्व-प्रभागनेयत्व, पितामहत्व-प्रपितामहत्व, को ही कहे और विरोधी के अस्तित्व से इन्कार करें तो नप्तृत्व-अनप्तृत्व, ज्येष्ठत्व-अज्येष्ठत्व, कनिष्ठत्व-अकनि- उसके अविन। भावी प्रभिधेय धर्म का भी प्रभाव हो जायेगा ष्ठत्व प्रादि अनेक धर्मयुगल उस पुरुष मे उपलब्ध है या वह और तब वस्तु मे कोई भी धर्म न रहने से वह भी न उनका समुदाय है। ये सभी धर्म युगल इसमे स्वरूपतः है, रहेगी। अत: विधि वचन और प्रतिषेध वचन दोनों भनेकल्पित नहीं, क्योकि उनसे तद् तद् व्यवहार रूप क्रिया कान्त के प्रकाशन हैं । जैसे नौकर से कहा जाय कि 'दही होती है। लाना', दूध न लाना' इन विधायक और प्रतिषेधक वक्ता जब वचन द्वारा वस्तु के विवक्षित धर्म को वाक्यों मे क्रमशः दही का विधान और दूध का निषेध लेकर उसे कहता है तो वह वस्तु उस धर्म वाली ही नही मुख्यतया अभिप्रेत है तथा गौण रूप से उनमे क्रमशः दूध है, उसमे उस समय अन्य धर्म भी विद्यमान हैं, जिनको का निषेध और दही का विधान भी, जो अविवक्षित है। उसे उस समय विवक्षा नही है । 'अग्नि दाहक है' कहने अवबोधित हैं। पर अग्नि की पाचकता, प्रकाशकता मादि शक्तियों इस प्रकार जैन दर्शन में सभी वचन अनेकान्त के स्वभावो-का लोप नही होता, अपितु भविवक्षित होने से वे गौण हो जाते है । देवदत्त को उसका लडका 'पिताजी' * __ अवबोधक हैं। कहकर जब सम्बोधित करता है तो देवदत्त अपने पिता एक दृष्टांत अपेक्षा पुत्र, भानजे की अपेक्षा मामा आदि मिट नहीं वस्तु की इस अनेकान्तता को प्रकट करनेवाला यहाँ जाता। मात्र उनकी उस समय विवक्षा नही है । इतना २. विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरा. १. अपितानपित सिद्धः -त. सू. ५ । त्मकस्ते । -स्वयम्भू. ५३ ।

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