Book Title: Anekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ जैनदर्शन की अनेकान्तवादी-दृष्टि टा० दरबारीलाल जैन प्रास्ताविक प्रास्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंभारत के प्राचीन दर्शनो मे जैन दर्शन एक प्रमुख का इस दर्शन मे प्रतिपादन है। दु.ख, स्थानीय बन्ध है, दर्शन है। इसका दार्शनिक और इतर ग्रथो तथा शिला- समुदयस्थानीय पात्र है, मार्गस्थानीय सबर और निजरा पटों मे 'पाहत मत' अथवा 'ग्राहंत दर्शन' नाम से निर्देश है। अागामी कम का अभाव जिन साधनो मोता मिलता है। इस दर्शन के प्राद्य प्रवत्तंक भगवान ऋषभ- साधन सवर है और सचित कर्म का प्रभाव जिससे होता देव हैं, जिनका उल्लेख विस्तारपूर्व भागवत में हुआ है है वह निर्जरा है। निगध स्थानीय मोक्ष है। मूल तत्त्व मौर जिन्हे पाहत मत का प्रवर्तक बताया गया है तथा जीव और अजीव ये दो ही है। इनके सयोग और वियोग हिन्दयों के चौबीस अवतारो में पाठवा अवतार माना से होने वाले अन्य पाँच उनके परिणाम है। जीव, मोक्ष गया है। तेईस सौ वर्ष पूर्व कलिङ्गाधिपति सम्राट् खार- और उसके साधन सवर तथा निर्जरा उपादेय तत्त्व है। वेल के राजघराने में प्रादि जिन ऋषभदेव को विश्रुत प्रजोव, बन्ध और प्रास्रव ये तीन तत्त्व हेय है । इस तरह एवं मनोज मूति की पूजा होती थी। यह मूनि कलिङ्ग मुक्ति को लक्ष्य मानकर मनुष्य प्राध्यात्मिक साधनो मे साम्राज्य की उत्कृष्ट कलाकृमि और सर्वोपास्य दवता के प्रवृत्त होता है। मनुष्य को क्या प्रत्येक जीवात्मा अपना रूप में मान्य थी। मगध सम्राट नन्दिवर्धन व लिङ्ग चरम विकास करके परमात्मा हो सकता है। इस दर्शन साम्राज्य के पूर्वजो से युद्ध करके इस मूर्ति को ले गया में प्रात्मा को न सर्वथा नित्य और न सर्वथा क्षणिक स्वीकार किया है। सत् का विनाश नही और असत् का था। किन्तु कुछ वर्षों बाद खारवल अपने राजघनन की उत्पाद नहीं' इस सिद्धान्त के अनुसार अन्वयी रूप (मध्य) पाराध्य इस मूर्ति को युद्ध करने वहाँ से ले पाया था। को अपेक्षा उसे नित्य और व्यतिरेकी रूप (पर्याय) की इस ऐतिहासिक घटना से अवगत होता है कि ऋषभदेव अपेक्षा से अनित्य माना गया है। अर्थात दोनों रूप हैं की मान्यता तो अत्यन्त प्राचीन है। ऋषभदेव के उपरान्त २३ तीर्थकर और हुए, जिन्होंने जैन दर्शन के सिद्धान्तो और यह उभय रूपता ही अनेकान्त है। का प्रकाशन किया इनमें बाईसर्व अरिष्टनेमि, जो श्रीकृष्ण प्रनेकांतवादी दृष्टि के समकालीन और उनके चचेरे भाई थे, तेईसवें नागवंशी इस ग्रने न्ति का दर्शन अथवा प्रतिपादन ही अनेक्षत्रिय पाश्वनाथ, जिन का जन्म इसी वाराणसी मेहमा कान्तवादी दृष्टि है। जैन दर्शन का मन्तव्य है कि विश्व था और अन्तिम चौवीसवें महावीर हैं जो बुद्ध के सम. को प्रत्येक वस्तु अनेकांताप है। बौद्धों के सर्व क्षणिकम्', कालीन हैं और २५०० वर्ष पूर्ववर्ती हैं। इन मभी तीर्थ सांख्यों के 'सर्व नित्यम', वेदान्तियों के 'सर्व सत्' और शून्यकरों का तत्वोपदेश पाहत मत या जैन दर्शन के रूप में वादियों के 'सर्वमसत' को तरह जैनो का सिद्धांत 'सर्वप्रसिद्ध है। मनेकांतात्मकम्' है। वस्तु केवल क्षणिक या केवल नित्य तस्व-विचारना या केवल सत या केवल प्रसत ही नहीं है। अपितु वह इस दर्शन का विचार केन्द्र प्रात्मा होते हुए भी अनात्मा क्षणिक और नित्य, सत् और असत् दोनों में विरोधी भी उतना ही विचारणीय है। बौद्धो के चतुर यसत्वों- धर्मों को लिए हुए है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसमें समय मार्ग प्रौर निरोध की तरह जीव, अजीव अनेकांत न हो। उदाहरण के लिए अग्नि को लीजिए।

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