Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ भारतीय दर्शन की एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहनी गमयन्ती सन्नयतः प्रसन्न-गम्भीर-पदपदवी ।। स्थल पर सर्व पदार्थों को 'मायोपम', 'स्वप्नोपम' मानने (ख) स्फुटमकलापवं या प्रकटयति परिष्टचेतसाम वाले सौगत को प्रकलदेव की तरह विद्यानन्द ने मात्र समम् । वशित-समन्तभद्र साष्टसहस्री सदा जयतु।' 'प्रमादी' और 'प्रज्ञापराधी' कहा है। इन दोनों शब्दों के प्रयोग में कितनी सौम्यता, सन्तुलन और सद्भावता प्रथम पद्य में कहा गया है कि प्रसन्न और गम्भीर निहित है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। इन सब पदों की पदवी (उच्च स्थान अथवा शैली) को प्राप्त यह बातों से 'प्रष्टसहस्री' की गरिमा निश्चय ही विदित हो प्रष्टसहस्री जयवन्त रहे-चिरकाल तक मनीषिगण जाती है। इसका अध्ययन-मनन करें, जिसकी विशेषता यह है कि वह देवागम मे सम्यक रीत्या प्रतिपादित और अकलङ्क इस पर लघु समन्तभद्र (१३वी शती) का एक 'प्रष्टसहस्री विषमपद-तात्पर्य टीका' नामक टिप्पण और समर्थित अर्थ को सन्नयों (सप्तभङ्गो) से अवगत कराती दूसरी श्वेताम्बर विद्वान यशोविजय (१७वी शती) की 'प्रष्टसहस्री तात्पर्य विवरण' सज्ञक व्याख्या उपलब्ध दूसरे पद्य में प्रतिपादित है कि जो पटुबुद्धियों एवं प्रकाशित हैं। इसका प्रकाशन सन् १७१५. वी. नि. प्रतिभाशालियों के लिए प्रकलङ्कदेव के विषय-दुरूह सं. २४४१ में प्राकलूज निवासी सेठ श्री नाथारंग जी पदों का, जिनमें स्वामी समन्तमद्र का हार्द अभिप्राय गांधी द्वारा एक बार हुअा था । अब वह संस्करण अप्राप्य प्रदर्शित है, अर्थोद्धाटन स्पष्टतया करती है वह प्रष्ट सहस्रो है। दमग नया संस्करण प्राधुनिक सम्पादनादि के साथ सदा विजयी रहे। प्रकाशनाई है । हम इसका सम्पादनादि कर रहे है । और भारतीय ज्ञानपीठ से उसका प्रकाशन होगा। परिच्छेदों के अन्त मे पाये जाने वाले पद्यों में विद्यानन्द ने उस परिच्छेद मे प्रतिपादित विषय का जो इसके रचयिता निचोड दिया है उससे भी व्याख्या की गरिमा का हम प्रारम्भ में ही निर्देश कर पाये हैं कि इस महमाभास मिल जाता है। एकान्तवादों की समीक्षा और नीय कृति की रचना जिस महान प्राचार्य ने की वे ताकिक पूर्व पक्षियों की माशंकामों का समाधान इसमे जिस शिरोमणि विद्यानन्द हैं। ये भारतीय दर्शन विशेषतः जैन शालीनता एवं गम्भीरता से प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय दर्शनाकाश के देदीप्य मान सूर्य हैं, जिन्हें सभी भारतीय है प्रायः उत्तरदाता प्रशकानों का उत्तर देते समय सन्तु. दर्शनों का तल स्पर्शी प्रनगम था, यह उनके उपलब्ध लन खो देता है और पूर्व पक्षी को 'पशु', 'जड', 'अश्लील' अन्थोंसे स्पष्ट प्रवगत होता है। इन का अस्तित्व-समय हम जैसे मानसिक चोट पहुँचाने वाले अप्रिय शब्दों का भी ने ई. ७७५ से १४० ई. निर्धारित किया है। इन के और प्रयोग कर जाता है। जैसा कि दर्शन-ग्रन्थों में उपलब्ध इनकी कृतियों के सम्बन्ध में विशेष विचार अन्यत्र किया होता है। पर 'मष्टसहस्री' में प्रारम्भ से अन्त तक गया है।' शालीनता दृष्टिगोचर होती है और कहीं भी असन्तुलन ३. अष्टस० पृ० ११६ । नहीं मिलता। और न उक्त प्रकार के कठोर शब्द । एक ४. प्राप्तप० प्रस्ता० पृ. ५३, वीरसेवा मन्दिर, दरिया१. वही, पृ. २१३ । गंज, दिल्ली-६। २. वही, पृ. २३१ । ५. वही, प्रस्ता० पृ.७-५४ ॥

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