Book Title: Anchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya Author(s): Ravishankar Mishr Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 5
________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य ११७ भाँति दिन-प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होता रहा और उसके जीवन में समस्त सद्गुण निवास करने हेतु प्रविष्ट होने लगे । दीक्षा :शिश वस्तिग ने अभी शैशव की किलकारियाँ भरते हए, बाल्यावस्था की दहलीज पर अपने पग रखे ही थे कि उसी बीच नाणी ग्राम में अञ्चलगच्छीय आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि का शुभागमन हुआ । आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि के सारगर्भित मुक्तिप्रदायी उपदेशों के श्रवण से अतिमुक्तकुमार की तरह सांसारिक सुखोपभोगों के प्रति आसक्ति रहित होकर बालक वस्तिग ने मात्र सात वर्ष की अल्पवय में ही माता-पिता की आज्ञा प्राप्तकर, वि० सं० १४१० में आचार्य श्रीमहेन्द्रप्रभसूरि से दीक्षा ग्रहण कर ली। इस दीक्षा-महोत्सव में वस्तिगकुमार के माता-पिता ने प्रचुर द्रव्यादि का दान एवं उत्सव में अपार धनराशि का व्यय किया। ___ इसी दीक्षा-महोत्सव पर ही आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि ने इस नवदीक्षित मुनिकुमार का नाम "मेरुतुङ्ग" रखा। सूरि' पद से अलङ्करण : एक तो बाल्यावस्था, दूसरे मुनि-जीवन-दोनों के एक साथ संयोग के कारण मनि मेरुतज का विद्याध्ययन सचारु रूप से चलता रहा। इस बालमनि को एक के पीछे कर समस्त सिद्धियाँ स्वयमेव प्राप्त होती गयीं। आचार्य महेन्द्रप्रभसरि के सान्निध्य में तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली के अनुसार मनि मेरुतङ. अपनी बद्धि-विचक्षणता द्वारा संस्कत, प्राकत तथा इनसे सम्बद्ध विविध विषयों के पारङ्गत विद्वान बन गये । कालक्रम से उनके चरित्र, ज्ञान एवं क्रियाओं का पूर्णतया विकास होता गया और वे शद्ध-संयम का पालन करते हुए अपनी अमतसदश कल्याणमयी वाणी से सदुपदेश व प्रवचन आदि भी देने लगे। इस प्रकार अप्रतिम प्रतिभा से सम्पन्न मुनि मेरुतुङ्ग को-आचार्य पद के हेतु सर्वथा योग्य जानकर-आचार्य श्रीमहेन्द्रप्रभसूरिजी ने संवत् १४२६ में पाटण नामक स्थान में "सूरि" पद से समलङ्कत किया । इस माङ्गलिक अवसर पर सङ्घपति नरपाल नामक श्रेष्ठी ने एक भव्य-महोत्सव आयोजन कर विविध दानादि दिये । तब से मुनि श्रीमेरुतुङ्गसूरि की ख्याति बहुत ही बढ़ गयी। वे मन्त्रप्रभावक बन गये एवं उन्होंने अष्टाङ्गयोग तथा मन्त्राम्नाय आदि में पूर्ण महारत प्राप्त कर ली। वे देशविदेश में यतस्ततः विचरण करते हुए, अपने सदुपदेशों व प्रवचनों द्वारा भव्यजीवों एवं नरेन्द्रादिकों को प्रतिबोध देने लगे। अन्य उपाधियाँ : आचार्य मेरुतुङ्गसूरि से सम्बधित ऐसे अनेकानेक प्रभावी अवदातों (गुणों) का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिनके द्वारा उन्होंने अनेकानेक नृपतियों को प्रतिबोधित कर जैनधर्म में दीक्षित किया।' इन्हीं गुणों के कारण आचार्यश्री को "मन्त्रप्रभावक', “महिमानिधि" आदि उपाधियों से भी सम्बोधित किया गया है। शिष्य-परिवार : आचार्य श्रीमेस्तुङ्गसूरि का शिष्य-परिवार भी अतिविशाल था। उन्होंने छः मुनियों को आचार्य, चार मुनियों को उपाध्याय तथा एक साध्वी को महत्तरा के पद पर स्थापित १. दृष्टव्य-लेखक का पी-एच० डी० शोधप्रबन्ध : महाकवि कालिदासकृत मेघदूत और जैनकवि मेस्तुङ्गकृत जैनमेघदूत का साहित्यिक अध्ययन, पृ० ५९-६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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