Book Title: Anchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya Author(s): Ravishankar Mishr Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 8
________________ १२० रविशंकर मिश्र ___ इधर कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उस समय हल्दी-चढ़ी, मेंहदी-रची, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एवं विवाह के हेतु प्रस्तुत वधू के रूप और विवाह की इस अकल्पनीय असफलता ने राजीमती के हृदय-सिन्धु में हाहाकार के कितने चक्रवातों को एक साथ उत्पन्न किया होगा? इसके पूर्व में अपने प्रिय की प्राप्ति के प्रति कितनी सुकोमल-कुमारी-कल्पनाएँ उसने अपने आन्तर-प्रदेश में संजो रखी होंगी ? किन्तु अकस्मात् यह क्या ? वधू का चूंघट-पट उठने से पूर्व ही यह निर्मम पटाक्षेप कैसा ? | परन्तु भारतीय नारी भी अपने आदर्श के प्रति अडिग है, वह जीवन में अपने पति का चयन एक ही बार करती है। इसी आदर्श के अनुरूप राजीमती भी पति-स्वरूप श्रीनेमि को अपने मनमन्दिर में प्रतिष्ठित करती है। श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव त्यागकर वन चले जाने की सूचना ने गिरिनगर में तो मानो वज्रपात ही कर दिया था। नगर के सभी माङ्गलिक-अनुष्ठान समाप्त कर दिये गये थे। इधर इस दुःखद समाचार से राजीमती एवं सखियों के करुण-क्रन्दन की चीत्कारें पाषाणहृदयों को भी तरलीभूत कर रही थीं। काव्य की कथावस्तु को सहजतया हृद्गत करने के लिए और आवश्यक सा प्रतीत होने के कारण इतनी पूर्वकथा दी गयी है । आचार्य मेरुतुङ्ग ने प्रस्तुत पूर्वकथा के पश्चात् के अत्यन्त कारुणिक कथास्थल से अपने काव्य को प्रारम्भ कर पूनः श्रीनेमि के जन्म से विवाह-त्याग तक की कथा को अपना विषय बनाया है, जो सर्ग-क्रम से संक्षेपतः प्रस्तुत हैप्रथम सर्ग कथा : काव्य के प्रथम सर्ग में श्रीनेमि की बालक्रीडा तथा पराक्रमलीला वर्णित है । कवि ने काव्य के प्रारम्भ में श्रीनेमि के विवाह-महोत्सव का त्यागकर चिदानन्द सुख-प्राप्ति-हेतु रैवतक पर्वत पर चले जाने का वर्णन किया है। श्रीनेमि द्वारा-विवाह-महोत्सव त्यागकर रैवतक पर चले जाने की सचना से अति क्षुभित एवं कामजित् श्रीनेमि की भावी पत्नी राजीमती को कामदेव ने, यह जानकर कि यह हमारे शत्रु श्रीनेमि की भक्त है, अत्यन्त पीड़ित किया। जिस कारण प्रियविरहिता भोजकन्या (राजीमती) मूच्छित हो गयी। राजीमती की सखियाँ अपने शोक गद्-गद् वचनों एवं लोकप्रसिद्ध चन्दन-ज़ला-वस्त्रादि-प्रभूत शीतोपचार द्वारा उसकी (राजीमती की) चेतना वापस लाती हैं। सचेत होते ही राजीमती हृदय में तीव्रोत्कण्ठा उद्भूत करने वाले मेघ को अपने समक्ष देखकर सोचती है कि उन भगवान् श्रीनेमि ने अपने में आसक्त तथा तुच्छ मुझको किस कारण सर्प की केंचुली की भाँति छोड़ दिया है। इन विचारों में उलझती हुई, नवीन मेघों से सिक्त भूमि की तरह निःश्वासों को छोड़ती हुई तथा मदयुक्त मदन के आवेश के कारण युक्तायुक्त का विचार न करती हुई राजीमती, जिस प्रकार मेघमाला प्रभूत जलवृष्टि करती है, उसी प्रकार अश्रुधारावृष्टि करती हुई, दुःख से अतिदीन होकर उक्त प्रकार ध्यान कर मधुर वाणी में मेघ का सर्वप्रथम स्वागत करती है, फिर उसका गुणगान करती है। १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक १।१ । २. वही, ११२ । ४. वही, १।१०। ३. वही, १७ । ५. वही, १४११-१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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