Book Title: Anchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya
Author(s): Ravishankar Mishr
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 12
________________ १२४ रविशंकर मिश्र जाकर स्त्रियों की मुकुटायित बना दी गयी थी, आज वही राजोमती आप द्वारा दूर हटायी जाने पर शोकरूपी क्षार-समुद्र से सङ्गत होने से दुःखो चित्तवाली होकर आप से निवेदन करती है ।' अन्त में वह अपने स्वामी श्रीनेमि के प्रति अपना विस्तृत सन्देश बतलाती है। अपने उस सुदीर्घ सन्देश में राजीमती श्रीनेमि से ज्यादा जवाब-तलब ही करती है, अपने हृदय का उद्घाटन कम । कवि ने यहाँ पर राजीमती की विरह-व्यथा को अत्युत्तम ढङ्ग से व्यञ्जनापूर्ण शैली में अभिव्यजित किया है। राजीमती की सखियाँ, उसकी विरह-वेदना तथा उसका इस प्रकार का सन्देश-कथन देखकर, उसे बहुत समझाती हैं तथा इसमें सारा दोष मोह का ही बतलाती हैं। सखियाँ इस महामोह को बोधरूपी शस्त्र से नष्ट कर डालने का परामर्श राजीमती को देती हैं और प्रभु श्रीनेमि की विशेषताओं का वर्णन करती हुई राजीमती को समझाती हैं कि "हे बुद्धिमति ! उस वरवणिनी को, रङ्गरहित पाषाणखण्डों को रङ्गीन बनाते हुए देखकर यह न विश्वास कर लो कि मैं भी तो वरवर्णिनो हूँ, अतः मैं भी भगवान् श्रीनेमि को रागरञ्जित कर लूँगी, क्योंकि वह पाषाण तो नाम से चूर्ण है, परन्तु ये भगवान् श्रीनेमि वह अकृत्रिम हीरा हैं, जिसे अधिक चटकीले रङ्गों से भी नहीं रङ्गा जा सकता है।"६ राजीमती सखियों के उक्त वचनों को सुनकर अपने शोक का परित्याग कर देती है और अपने पति के ध्यान से सावधान बुद्धिवाली वह तन्मयत्व ( स्वामिमयत्व ) प्राप्तकर, केवलज्ञान-प्राप्त अपने प्रभु श्रीनेमि की शरण में जाकर, व्रतग्रहण करके स्वामी के ध्यान से स्वामी की ही तरह रागद्वेषादिरहित होकर, स्वामी के प्रभाव से गिने हुए कुछ ही दिनों में परम आनन्द के सर्वस्व मोक्ष का वरण कर, अनुपम तथा अव्यय सौख्य-लक्ष्मी को प्राप्त कर, शाश्वत-सुख का उपभोग करती है। इस प्रकार आचार्य श्रीमरुतुङ्गसूरि ने अपने इस सन्देशपरक काव्य में निश्चयमेव पाठकों के समक्ष एक ऐसा अति गूढ़ विशिष्ट सन्देश दिया है, जिसमें त्याग-प्रधान जीवन के प्रति एक दिव्य ज्योति प्रकाशित मिलती है। शृङ्गारपरक इस काव्य का शान्त रस में पर्यवसान कर तथा श्रीनेमि जैसे महापुरुष को इस काव्य का नायक बनाकर आचार्य मेरुतुङ्ग ने पाठकों के सम्मुख शान्तरस का जैसा आदर्श प्रस्तुत किया है, वैसे आदर्शपूर्ण सत्साहित्य से ही संसार में विश्वप्रेम की भावना उद्भूत हो सकती है। यह शान्त रस ही तृष्णाओं का क्षय करता है, मनुष्य को मानव-धर्म की स्मृति कराता है और मानव-हृदय में "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की भावना उद्भूत करता है। - शोध सहायक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ____ आई० टी० आई० रोड, वाराणसी-५ १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ४।१४ । २. वही, ४१५-३६ । ३. वही, ४१३८। ४. वही, ४।३९ । ५. वही, ४१४०। ६. वही, ४१४१ । ७. वही, ४।४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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