Book Title: Anchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya
Author(s): Ravishankar Mishr
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 4
________________ रविशंकर मिश्र वर्तमान में अञ्चलगच्छ की परम्परा विद्यमान है। अञ्चलगच्छ के संक्षिप्त परिचय के पश्चात् हम अपने विवेच्य-बिन्दु की ओर अभिमुख होते हैं। अञ्चलगच्छ की इस विस्तृत पट्टावली में आचार्य मेरुतुङ्ग का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। जैन-संस्कृत-साहित्य के निर्माण में आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ने पर्याप्त योगदान दिया है। वैसे जैन साहित्य में मेरुतुङ्ग नामक तीन आचार्य हुए हैं, परन्तु काव्यप्रणेता के रूप में दो मेरुतुङ्ग ही प्रसिद्ध हैं। प्रथम आचार्य मेरुतुङ्गसूरि, जो चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे, प्रायः नगेन्द्रगच्छ के आचार्य थे। इन्होंने प्रबन्धचिन्तामणि नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ वि० सं० १३६१ में पूर्ण किया था।' द्वितीय आचार्य मेरुतुङ्गसूरि ही हमारे विवेच्य आचार्य हैं, जो पन्द्रहवीं शताब्दी के तथा अञ्चलगच्छीय आचार्य महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य थे। - अञ्चलगच्छीय आचार्य मेरुतुङ्गसूरि जैन-साहित्य-क्षितिज के अत्यन्त प्रभावक आचार्य हुए हैं। इनके जीवन-परिचय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री यतस्ततः अभी तक बिखरी हुई है। अतः वास्तविक परिचय न प्राप्त हो सकने के कारण तथा आचार्य द्वारा स्वयं अपने प्रति कुछ भी न लिखने के कारण, आचार्य मेरुतुङ्गसूरि की जीवन-रेखा को रेखांकित कर पाना असाध्य तो नहीं, पर दुःसाध्य अवश्यमेव है। उपलब्ध सामग्री के आधार पर यहाँ इनका जीवन-चरित दिया जा जन्मस्थान एवं काल: मरुभमि मारवाड प्रदेश के अन्तर्गत नाणी नामक एक ग्राम में वहोरा वाचारगर एवं उनके भ्राता वहोरा विजयसिंह निवास करते थे। उनमें वहोरा विजयसिंह के वहोरा वयरसिंह नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त विचक्षण बुद्धिवाला एवं धार्मिक था। नालदेवी नामक अत्यन्त शीलवती कन्या से उसका पाणिग्रहण-संस्कार हुआ। किञ्चित् कालानन्तर एकदा नालदेवी की महनीय कुक्षि में एक अतीव पुण्यशाली जीव देवलोक से आकर अवतीर्ण हुआ। फलतः उस प्रभावी जीव के प्रभाव से नालदेवी ने स्वप्न में देखा कि सहस्रकिरणपुञ्ज सहित रवि मेरे मुख में प्रविष्ट हो रहा है। तभी चक्रेश्वरी देवी ने तत्काल आकर इस महास्वप्न के प्रभावी फल को नालदेवी से बताया कि तुम्हारी कुक्षि से ज्ञानकिरणयुक्त रवि की भाँति महाप्रतापी, तेजस्वी एवं मुक्तिमार्गप्रकाशक एक पुत्र जन्म-ग्रहण करेगा, जो अपरिग्रहभाव से संयम-मार्ग का अनुगमन करता हुआ एक युगप्रधान-योगीश्वर होगा । चक्रेश्वरीदेवी के इन वचनों का ध्यानपूर्वक श्रवणकर एवं उसको आदरसम्मान देती हुई, नालदेवी तब से धर्मध्यान में अत्यधिक अनुरक्त हो, अपने गर्भस्थ शिशु का यथाविधि पालन करने लगीं। __ गर्भस्थ शिशु शनैः शनैः वृद्धि प्राप्त करता रहा एवं वि० सं० १४०३ में उसने माता नालदेवी के गर्भ से जन्म-ग्रहण किया। वहोरा वयरसिंह के कुल-परिवार में हर्षोल्लासपूर्वक खुशी की शहनाईयाँ बज उठीं । हर्षपूर्ण उत्सव के साथ पुत्र का नाम वस्तिगकुमार रखा गया। शिशु वस्तिग चन्द्र की १. त्रयोदशस्वब्दशतेषु चैकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु । वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्तिङ्गमितो मितोऽयम् ॥ ५ ॥ -आचार्य मेरुतुङ्गसूरि : प्रबन्धचिन्तामणि, ग्रन्थकारप्रशस्ति । २. (क) श्री पार्श्व : अचलगच्छ दिग्दर्शन ( गुजराती), पृ० १९९ । (ख) आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, प्रस्तावना, पृ० १७ । ३. पट्टावली में नाम नाहुणदेवी है, परन्तु रास व अन्यत्र नालदेवी ही नाम वर्णित है। ४. व्याख्यानपद्धति में पुत्र का नाम वस्तो है, गच्छ की गुर्जर पट्टावली में वस्तपाल नाम दिया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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