Book Title: Anand Pravachana Part 9
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 15
________________ सत्यशरण सदैव सुखदायी —जा लोग इस संसार में अपने स्वार्फ के लिए या दूसरे के लिए अथवा विनोद या मजाक में भी असत्य नहीं बोलते, वे सत्यवादी स्वर्गगामी होते हैं। وا बन्धुओ ! कालकाचार्य सत्यशरण से ही उद्दण्ड और क्रूर राजा के कोपभाजन होने से और उसके द्वारा होने वाली हत्या से बच सके। सत्य ने ही अपने शरणागत की रक्षा की। मृत्य की शरण में जाने पर परिपूर्णकाम बहुत से लोग कहते हैं--- सत्य की शरम में जाने पर मनुष्य अपनी इच्छाएँ पूर्ण नहीं कर सकता, उसे अपनी बहुत-सी इच्छाओं को दबाना पड़ता है, वह अनेक अभावों से पीड़ित रहता है। और तो क्या, सुख से जीवनयापन भी नहीं कर सकता । परन्तु यह कथन उन्हीं लोगों का है, जिन्हें सत्य की परमशक्ति पर विश्वास नहीं है, जिन्हें सांसारिक पदार्थों की तृष्णा सताती रहती है, जो झूठे सम्मान और झूठी प्रतिष्ठा एवं क्षणिक यशोगान के भूखे रहते हैं, जिनका एन शारीरिक और इन्द्रियविषयजनित सुखों की लालसा से घिरा रहता है, जो स्वाधीन एवं वास्तविक आत्मसुख को जानते नहीं । ऐसे लोग ही अपनी सांसारिक सुखमयी दृष्टिः से सत्यशरणलीन महापुरुषों के जीवन को आँका करते हैं। सत्यनिष्ठ राजा हरिश्चन्द्र को सत्य की शरण में जाने पर कितना कष्ट उठाना पड़ा। अपना राजपाट, धन-धाम, ऐश-आराम सब कुछ छोड़कर उन्हें पैदल अयोध्या से काशी भागना पड़ा। रास्ते में अनेक कष्ट भोगे । भूख-प्यास सर्दी-गर्मी और थकान आदि के कष्ट तो थे ही, अपमान का कष्ट भी क्या कम था। काशी जाने पर विश्वामित्र की ओर से बार-बार एक सारा स्वर्णमुद्राओं का तकाजा और क्रोधावेश में आकर धमकी, यहीं तक दुःखों का अन्त नहीं हुआ। उन्हें अपनी रानी तारामती को भी बेचना पड़ा, स्वयं को भी भंगी के यहां बिकना पड़ा, अपने पुत्र-पत्नी का वियोग सहना पड़ा। भंगी के यहाँ भी कम अपमान नहीं था। इन बातों पर से साधारण स्थूलदृष्टि: का मानव यही अनुमान कर लेता है कि सत्य की शरण में जाने से ही अनेकों दुःख प्रजा हरिश्चन्द्र को सहने पड़े। परन्तु राजा हरिश्चन्द्र के मन से अगर वे पूछते कि आपको कितने कष्ट सहने पड़े हैं ? तो शायद वे यही कहते "सत्य की रक्षा करने में मुझे जो आनन्द आया, उससे मेरी आत्मा का जो विकास हुआ, तथा मेरी जो सहनशक्ति बढ़ी, आत्मा पर जो राजा, वैभवशाली, भाग्यवान, सत्ताधीश आदि पदों के अहंकार के जो विकार पड़े थे, वे दूर हुए, आत्मा अपने असली स्वभाव में आकर चमक उठ । एक महात्मा के समान मेरा जीवन कष्टों की भट्टी में तपकर खरा सोना बन गया, यह लाभ उन शारिरिक और मानसिक कष्टों की अपेक्षा कई गुना है, जो मुझे मिला है। अगर में सत्य पर दृढ़ न रहता तो इतनी उपलब्धियाँ कहाँ न होतीं। " वास्तव में, सत्य की शरण में जाने पर मनुष्य सांसारिक सुखभोग की कामनाओं

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