Book Title: Anand Pravachan Part 04
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 8
________________ तभी कोई न कोई महापुरुष आगे आया और उसने आये हुए विकारों को दूर किया और उसमें उसकी मूलप्रकृति के अनुकूल नवीन तत्त्व का समावेश कर दिया। इस प्रकार के प्रयत्नों के द्वारा वह सदैव तरोताजा रही । उसकी उपादेयता में कभी-कमी नहीं आ पाई। इस संस्कति के आद्य स्रोत आदिनाथ ऋषभदेव थे। उनका काल इतना पुराना है कि वह अंक-गणना का विषय नहीं है। उस सुदूर अतीत काल से लेकर आज तक असंख्य लोकोत्तर पुरुषपुगवों ने इस संस्कृति-धारा को आगे बढ़ाया है, सजाया है, संवारा है। उसे युगानुकूल बनाने का सफल प्रयास किया है । भारतीय संस्कृति में यह जो विशेषता रही है, इसका मुख्य कारण यही है कि इसका निर्माण सन्तों के द्वारा हुआ है। सन्त पुरुष ही इसे अग्रसर करते रहे हैं, इसका नवीनीकरण करते रहे हैं। प्राचीन काल में समाज पर सन्तों का अप्रतिहत प्रभाव रहा है और वे समाज के पथप्रदर्शक ही नहीं, संचालक भी रहे हैं । पर आज का युग सर्वथा भिन्न प्रकार का है। भौतिक विज्ञान के विस्मयजनक विकास ने समग्र प्राचीन स्थापनाओं, मान्यताओं और विश्वासों को हचमचा दिया है। एक देश का दूसरे देशों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क हो गया है और इस कारण एक-दूसरे के गुणावगुण भी एक-दूसरे में आने लगे हैं। इसके अतिरिक्त आज की विचारधारा भी अधिक तार्किक एवं बौद्धिक बन गई है। इन कारणों से प्राचीन संस्कृति का टिक्ना अत्यन्त कठिन हो जाता है। जटिल समस्या है कि प्राचीन संस्कृति के हितावह तत्त्वों की सुरक्षा कैसे की जाय ? भारतीय सन्तजन ही पुराने युग में यह सब करते आए हैं। आज भी यह उत्तरदायित्व उन्हीं पर आ पड़ा है। इस संबंध में सन्त-समाज की ओर से जो प्रयत्न प्रारंभ हुए हैं, उसके दो प्रकार दृष्टिगोचर होते है (१) प्राचीन कल्याणकारी सांस्कृतिक तत्त्वों की सुरक्षा के लिए जनसाधारण को प्रेरणा और (२) परिवर्तित परिस्थितियों में प्राचीनता के स्थान पर नवीन तत्त्वों की स्थापना । इस द्विविध उपचार के बिना संस्कृति का संरक्षण संभव नहीं है। अतएव प्राचीनता का मोह और नूतन के प्रति नफरत, इन दोनों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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