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त्यागकर संस्कृति के प्राणभूत तत्त्व की रक्षा करना ही विवेक-संगत होगा।
सन्तों को इसके लिए उद्यत रहना है। अपने जीवन व्यवहार द्वारा और अपनी वाणी के प्रभाव द्वारा उन्हें संस्कृति संरक्षण का कार्य करना हैं। कतिपय सन्तों ने इस तथ्य को समझा है और वे यथाशक्य कर भी रहे हैं। आज सन्तों के जो प्रवचन होते हैं उनकी उपादेयता की यही खास कसौटी होनी चाहिए।
श्रमणसंघ के आचार्यप्रवर श्री आनन्द ऋषिजी म० के प्रवचन कई भागों में प्रकाशित हो चुके हैं । उन सबको वांचने पर यह सत्य उजागर हो जाता है कि आचार्य श्री के व्याख्यानों में नैतिकता और धार्मिकता पर जो जीवन की प्रगति के लिए अनिवार्य हैं, पर्याप्त जोर दिया जाता है। इस कारण नैतिकता के घोर ह्रास के इस युग में यह प्रवचन अतीव उपयोगी हैं ।
प्रवचन और निबन्ध की शैली में बड़ा अन्तर होता है। प्रवचनों को निबन्ध शैली में ढालकर उपस्थित करने का कठिन दायित्व उसके सम्पादक का है । आचार्यश्री के प्रवचनों की सम्पादिका मेरी पुत्री सुश्री कमला 'जीजी' एम० ए० ने अपने दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है। प्रवचनों के सुन्दर अन्तरंग में भाषा सौष्ठव ने प्राण पूरित कर दिए हैं। प्रवचन सरस, रोचक और प्रभावजनक बन गए हैं । आशा है पाठक इन प्रवचनों का पारायण करके अपने जीवन के परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे। आचार्यश्री के प्रवचन समाज को भविष्य में भी उपलब्ध होते रहें, यह आवश्यक है।
श्रमणी विद्यापीठ, घाटकोपर, बम्बई-७७
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- शोभाचन्द्र भारिल्ल
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