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एक दृष्टि
भारतीय संस्कति को यदि सांगोपांग शरीर कहा जा सके तो निश्चय ही उसका हृदय अध्यात्म है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इस संस्कृति का सम्बन्ध मात्र व्यक्ति के साथ ही है । भारत की संस्कृति अपने आप में इतनी विराट और व्यापक है कि वह व्यक्ति और समष्टि-दोनों को साथ लेकर चलती है। आजकल की विशुद्ध समाजवादी विचारधारा की तरह वह व्यक्ति (आत्मा) की उपेक्षा नहीं करती
और न एकान्त व्यक्तिवाद के दायरे में संकुचित होती है। उसने व्यक्ति एवं समाज के समग्र जीवन को प्रशस्त आलोक प्रदान किया है। वह वर्ग, क्षेत्र और काल की सब प्रकार की परिधियों से विमुक्त है। वह गंगा का वह पावन प्रवाह है, जिसमें अनेकानेक विचारधारायें जो विभिन्न क्षेत्रों और कालों में प्रवाहित होती हैं, समाहित होती रहती हैं और अपने संस्पर्श से उनमें भी पावनता उत्पन्न कर देती है । यही कारण है कि यह संस्कृति कभी पुरानी नहीं होती नूतन ही बनी रहती है। कोई देश ऐसा नहीं और कोई काल भी ऐसा नहीं जिसके लिए भारतीय संस्कृति अनुपयुक्त सिद्ध हो सकती है। वह जीवन के शाश्वत तत्त्वों से जुड़ी हुई है।
भारतीय संस्कृति की यह एक असाधारण विशेषता है। इसका आशय यह नहीं कि उसमें कभी कोई विकार नहीं आता। गंगा के प्रवाह में कूड़ा-कचरा भी मिलता है, गंदगी भी सम्मिलित हो जाती है। फिर भी गंगा की पावनता अक्षण्ण ही रहती है। हमारी संस्कृति में भी अनेक प्रकार के कचरे का समावेश हआ है, गंदगी भी आई है, किन्तु वह संस्कृति का स्वरूप नहीं है।
इतिहास के पन्ने स्पष्ट साक्षी देते हैं कि भारतीय संस्कृति में जब कभी विकृति आई और वह देश-काल से प्रतिकूल प्रतीत होने लगी,
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