Book Title: Anand Pravachan Part 04 Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain Publisher: Ratna Jain PustakalayaPage 10
________________ सम्पादकीय सुज्ञ बंधुओ ! असीम हर्ष की बात है कि आपके समक्ष 'आनन्द- प्रवचन' का यह चतुर्थ भाग आत्मोत्थान की विविध सामग्री लेकर प्रस्तुत हो चुका है। आशा ही नहीं अपितु विश्वास है कि समस्त मुमुक्षु बंधु इसके द्वारा भी आत्म-चिंतन एवं आत्म-साधना के मार्ग पर अपने कुछ कदम और बढ़ाएँगे । आप अनुभव करते ही होंगे कि साहित्य के विभिन्न अंगों में प्रवचन साहित्य का भी अपना एक स्वतंत्र एवं विशिष्ट स्थान है । इसके द्वारा वक्ता के विचारों का एवं व्यक्तित्व का पर्याप्त परिचय होता है । मानव के मस्तिष्क एवं मानस में रहनेवाली गुण - सम्पदा का बोध उसकी वाणी के द्वारा ही श्रोता को हो सकता है और इसीलिये हम 'आनन्दप्रवचन' के रूप में निर्झरित होती हुई आचार्य श्री जी की वाणी के द्वारा उनकी ज्ञान-गरिमा का अनुभव कर सकते हैं, कर रहे हैं । आपके प्रवचन हमारे लिये जीवन-संघर्ष की घड़ियों में सहायक बन सकते हैं, उलझी हुई विकट समस्याओं को सुलझा सकते हैं, कर्तव्य-पथ पर समुचित ढंग से चलने की प्रेरणा दे सकते हैं तथा आत्मा को पवित्र एवं निष्कलुष बनाने के लिये विविध सूत्र प्रदान कर सकते हैं । संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि ये प्रवचन हमें वह सभी कुछ दे सकते हैं, जिनकी सहायता से आत्मा को परमात्मा बनाया जाता है । आवश्यकता केवल इसी बात की है कि इन्हें भली-भांति समझा जाय, हृदयंगम किया जाय और जीवन में उतारा जाय । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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