Book Title: Amurtta Chintan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ प्रस्तुति हमारे जगत् का अर्थ है-इन्द्रिय चेतना और मूर्त पदार्थ का गठबंधन । हमारा ज्ञान इन्द्रियों की परिधि में केन्द्रित है। जो पदार्थ है, वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श की परिधि में अवस्थित है। पांच इन्द्रियां और ये पांच विषय इतना छोटा-सा है-हमारा जगत् । वास्तव में यह जगत् इतना छोटा नहीं है। यह बहुत बड़ा है। इन्द्रियों की शक्ति बहुत सीमित है। वे मूर्त पदार्थ को जानती हैं, पर उन्हीं को जो स्थूल हैं। परमाणु मूर्त हैं। इन्द्रियां उन्हें नहीं जान सकतीं। अनन्त परमाणु मिले। एक स्कंध बन गया। उसकी परिणति सूक्ष्म है। इन्द्रियां उसे भी नहीं जान सकती। इन्द्रियां केवल उसी पदार्थ को जानती हैं जो अनन्त-अनन्त परमाणुओं से बना हुआ स्कंध है, और जिसकी परिणति स्थूल हो गई है। वे सारे मूर्त जगत् को भी नहीं जानतीं तब अमूर्त जगत् को जानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ___ अमूर्त तत्त्व शब्द, गंध, रस और स्पर्श से अतीत होते हैं। उसके परमाणु (प्रदेश) पुद्गल के परमाणुओं से भिन्न हैं। इसलिए एक इन्द्रियज्ञानी का अमूर्त को जानने का प्रयत्न सफल नहीं होता। वह परम अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय है। सामान्य अतीन्द्रिय ज्ञानी भी उसे नहीं जान सकता। परम अतीन्द्रिय ज्ञानी ही उसे जान सकता धर्म का पहला बिन्दु है-अतीन्द्रिय चेतना। इन्द्रिय चेतना वाला धर्म का मूल्य नहीं आंक सकता। धार्मिक वही होता है, जो मूर्त के साथ अमूर्त का भी मूल्यांकन करता है। मनुष्य सामाजिक है। वह समाज से बनता है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से यह सचाई है। अस्तित्व की दृष्टि से यह सत्य नहीं है। अस्तित्व की दृष्टि से वह अकेला है। सामाजिक दृष्टि से प्रत्येक मनुष्य सहयोग का जीवन जीता है। एक दूसरे को आश्वासन और शरण देता है। किन्तु वास्तविक सचाई इससे भिन्न है। प्रत्येक आत्मा अपने ही सत्-आचरण से अपने आपको त्राण दे सकती है, अपना त्राण बन सकती है। इस प्रकार हमारा व्यक्तित्त्व व्यावहारिक सचाइयों और वास्तविक सचाइयों का योग है। व्यावहारिक सचाइयों का चिन्तन से सीधा सम्बन्ध जुड़ता है। आन्तरिक सचाइयों का क्षेत्र परामार्थ है, वह चिन्तन से परे है। यह विषय-मर्यादा है चिन्तन और अचिन्तन की, मूर्त और अमूर्त की। परमार्थ का भी चिन्तन की भूमिका पर अवतरण होता है। फिर भी वह अपने अमूर्त रूप को बनाए रखता है। मूर्त और अमूर्त दोनों के क्षेत्र बहुत विशाल हैं, पर इन्द्रियज्ञानी की परिधि में जीने वालों के लिए अमूर्त का क्षेत्र बहुत बड़ा नहीं है। इसीलिए वे मूर्त चिंतन को जितना महत्त्व देते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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