Book Title: Aho Shruta gyanam Paripatra 50 Suvarn Ank
Author(s): Babulal S Shah
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar Ahmedabad

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Page 62
________________ श्री गौतम स्वामी का रासः इतिहास की सुवास मुनि श्री मनित प्रभसागरजी श्रीखरतरगच्छ जैन साहित्य भण्डार न केवल जैन समाज की अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य कोषकी गौरवपूर्ण निधि है । जैनाचार्यो, उपाध्यायों और मुनियों ने मौलिक-वृत्त्यादि, गद्य-पद्य, संस्कृत-प्राकृत-गुर्जरि-मरुतमिल, हर तरह से सुरुचिपूर्ण शैली और मधुर-सुन्दर शब्दावली में शास्त्र-कोषको सुसमृद्ध बनाया है। ___ हजारों कृतियों में से एक कृति आज भी जन-जन के कण्ठ का हार-श्रृंगार बनी हुई है । कि इस सुकाव्य का निर्माण तृतीय दादा गुरुदेव आचार्य श्री जिनकुशलसूरि महाराज साहब के शिष्य लब्ध प्रतिष्ठ विद्वद्वर्य श्री विनय प्रभोपाध्याय द्वारा किया गया है। भले ही यह काव्य-कृति खरतरगच्छीच उपाध्याय द्वारा विरचित है पर परम पुण्य के खजाने को भीतर मे समेटने वाला यह रास आज समस्त गच्छों में महामांगलिक के रुप में कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा, नववर्ष प्रारंभ में गाकर गणीधर गौतरस्वामी का स्मरण किया जाता है। ___ इतिहास के गवाक्षसे झांकते हैं तो पाते हैं कि इस रास का निर्माण उपाध्यायश्रीने अपने निर्धन भ्राता की सुख-सम्पत्ति-समृद्धि के लिये किया था जिसका उल्लेख "जैन गुर्जर कविओं" के प्रथम भाग में किया गया है जिसमें अजीमगंज के श्री नेमिनाथ मंदिर से संलग्न ज्ञान भण्डार की प्राचीन प्रत में निम्नोक्ट पाठ प्राप्त होता है। ___ 'तया श्री गुरुमिः श्री जिनकुशलसूरिभिः विनयप्रभादि-शिष्येभ्यः उपाध्याय पदंदत्तं येन * विनयप्रभोपाध्यायेन निर्धनीभूतस्य निजभ्रातुः सम्पत्तिसिद्धयर्थं मंत्रगर्भित गौतमरासो विहितः तद्गुजनेन स्वभ्राता पुनऋद्धिवान जातः । इस रास का निर्माण स्तंभन पार्श्वनाथ तीर्थभूमि खंभात पर विक्रम संवत् नूतनवर्ष 1412 के नव्य सुनहरे प्रभात में किया गया था। उन्होंने विनय पद उवज्झायथुणीजे पदके द्वारा स्वनामको अभिव्यक्ति दी है। इस रासका पठन धन-यशलाभ तो देता ही है पर उससे अलौकिक शाश्वत समाधि-सुख व साधना के अक्षयपुंजलब्धि निधान श्री गौतम स्वामी के कृपा, कमनीयता, कोमलता आदिगुणों को भी समर्पित करता है। गौतम स्वामी के गुणों की वर्णना में उनकी अभिव्यक्ति अद्वितीय है। 'चिन्तामणि कर चढियो आज, सुरतरु सारे वांछित काज, कामकुंभ सहुवश हुआए।' गौ अर्थात् कामधेनु त अर्थात कल्पतरु और 'म' अर्थात चिन्तामणि स्वरुप गौतम गुरुदेव के द्वियभव्य रासकी, अनूठी शैली, प्रांजल शब्दावली, सरस-सुबोध पद्धति, मरु-गुर्जर-प्राकृत आदि भाषाओं का मंगल-संगम, विविध छंद-अलंकार और अनुप्राश का प्रकाश जैसे मन को हर लेता है । चित्त को चिन्तन की चांदनी से सुसौम्य बना देता है।चित्त को चमत्कृत, हत्र को झंकृत और विचारों को विस्मित करने वाला यह रास उन दिव्य पलों में बना कि हजारों तन्त्र, मन्त्र, सिद्धि, कृद्धि, लब्धि, विधा,शान्ति, साधना इसमें आकर प्रतिष्ठित होय गये । परिणामतः यह सुवासित रास अनन्त-अखण्ड गुणों का अक्षय कोषागार बन गया। *दुसरी बहुत प्रतियो में यह पाठ नहीं है। जिनशासन में अनेकानेक ज्ञानागार आजभी मौजूद है। जिन में श्री गौतमस्वामी के रास की अन्यान्य प्रतियों में कर्ता के अन्यान्य नाम प्राप्त होते है। 'विनय' प्राय: सब में सामान्य है, केवल अजीमगंज की प्रति को ही प्रमाण माना जाये, यह संभव नहीं है। तत्वं तु केवलिगम्यम्। -संपादक રોમે રોમે રોમાંચ

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