Book Title: Ahimsa aur Samajik Parivartan Adhunik Sandarbh
Author(s): Kalyanmal Lodha
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 5
________________ महाभारत, धर्मशास्त्र आदि सब अहिंसा को किसी न किसी प्रकार मनुष्यजीवन का प्राण तत्व गिनते हैं, ' मा हिंस्यात् सर्वं भूतानि' । अहिंसा का नैतिक राज्य ही सर्वोत्तम है | छांदोग्य उपनिषद कहता है कि यज्ञों में बलि नैतिक गुणों की ही देनी चाहिए 'अथयत् तपोदानं आर्जव, अहिंसा, सत्यवचनं इतिता अस्य दक्षिणा : ' (३ - १७ ) - आरुणिकोपनिषद शाण्डिल्योपनिषद ने भी यही माना । ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्य च यत्नेनहे रक्षतो हे, रक्षतो है, रक्षत इति ( आरुणिकोपनिषद -- ३ ) मनु जैसे आचार्यों ने ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर भी यह कहा 'अहिंसयेव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ' ( ३- १५६ ) महाभारत की तो स्पस्ट घोषणा रही - अहिंसा सकलोधर्मो हिंसा धर्मस्तथाहितः' (शान्ति पर्व २७२ - २० ) अनुशासन और शान्ति पर्व इसी अहिंसक समाज की संकल्पना करते हैं-- 'अहिंसा परमोधर्मः अहिंसा परमं तपः, अहिंसा परमं सत्यं ततो धर्म प्रवर्तते'आदि | महाभारत के अन्त में महर्षि व्यास तक को कहना पड़ा कि 'परोपकार पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।' पद्मपुराण कहता है 'अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पं इन्द्रिय निग्रहः । सर्व भूत दया पुष्पं, क्षमा पुष्पं विशेषतः ।' महाभारत में राजविचक्षण, वृहद् धर्म पुराण में परशुराम और शिव का संवाद इसके प्रमाण हैं । वायु पुराण का यह कथन पर्याप्त है- 'अहिंसा सर्वभूतानां कर्मणा मनसा गिरा ।' विष्णु पुराण में हिंसा के पारिवारिक रूप की चर्चा की गई है । अनृत, निकृति, भय, नरक, सन्तान, माया, वेदना, व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा, क्रोध उसकी परम्परा है। इसके विपरीत अहिंसा के लिए ब्रह्म पुराण स्पष्ट कहता है 'सर्व भूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु' । पुराण ही क्यों, समस्त भारतीय वाङ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम Jain Education International मय, इसी की साक्षी देता है । भारतीय संस्कृति की नैतिकता धर्म पर सर्वाश्रित है। महावीर का तो जीवन ही इसका दिव्य संदेश है । इतिहास में महावीर ( और बुद्ध) शाश्वत ज्योतिपुंज हैं, जो मानवजीवन के अन्तर्बाह्य अन्धकार को अहिंसा व करुणा से, अपरिग्रह व मैत्री भावना से दूर कर सदा-सदा आलोक विकीर्ण करते रहेंगे । महावीर का जीवन, व्यक्तित्व और कर्तृत्व ही इसका उदाहरण है । कितने परीषह और उपसर्गं आये, कितनी चुनौतियाँ उन्होंने झेलीं, कितनी उपेक्षाएँ सहीं, पर वह - 'आलोक पुरुष मंगल-चेतन' शान्त, स्थिर और दृढ़ निश्चय से अहिंसा द्वारा मनोगत अन्धकार को विनष्ट कर हमें ज्योतिर्मय कर गया । आभ्य'सत्वापि सामथ्ये अपकार सहनं क्षमा' की वे मूर्ति तर व बाह्य दासत्व से उसने हमें मुक्ति दी । थे । रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार 'यदि तौर डाक शुनै कोई न आशे, तबै एकला चलो रे' - वे अकेले ही यात्रा करते रहे- निर्भय और निःशंक होकर । अपरिचितों से न भय था और न परिचितों में आसक्ति । उनका जीवन पराक्रम, पुरुषार्थ और परमार्थ से सम्पूर्ण था । संकीर्ण मनोवृत्ति का उन्होंने त्याग किया। चंडकौशिक हो या संगम, यक्ष या कटूपतना, गौशालक हो या इन्द्रभूति गौतम सबके प्रति वही समभाव, वही सद्भाव । क्रोध, मान, लोभ, मोह कहाँ गये थे कषाय । समाप्त हो गये । महावीर का जीवन ही उनकी साधना का रहस्य है, अहिंसा की मंजूषा है। उन्होंने बताया कि अहिंसा का दर्शन सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है । आज जब पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, प्राकृ तिक संतुलन बिगड़ रहा है, पशु-पक्षी, जन्तु मनुष्य की हिंसक वृत्ति से समाप्त हो रहे हैं, महावीर ने आचार-विचार और व्यवहार के साथ-साथ आहार का शाकाहार का भी प्रमाण दिया - वे केवली थेत्रिकालज्ञ, दिव्य । हिंसा पाप है, रौद्र है, भय है, साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only ३४७ T www.jaiheorary.org

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