Book Title: Ahimsa aur Samajik Parivartan Adhunik Sandarbh
Author(s): Kalyanmal Lodha
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf

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Page 4
________________ ला सांस्कृतिक अलगाव चारों ओर व्याप्त है। एनौमी है। इसी संवेदना का अनुभव कर परमहंस श्री वह मानसिक दशा है, जिसमें नैतिक जड़ें नष्ट हो रामकृष्ण ने पत्त, फूल और पौधों को छूना तक द जाती हैं-मनुष्य विशृंखलित होकर अपना नैरन्तर्य नहीं चाहा। हि खो बैठता है-आध्यात्मिक स्तर पर वह अनुर्वर हमें यह मानना चाहिए कि अहिंसा आज के और निर्जीव है । उसका दायित्व बोध किसी के प्रति विघटित, संत्रस्त और किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य को. नहीं है । उसका जीवन पूर्णतः निषेधात्मक है । उसके निश्चित सुव्यवस्था देकर अहिंसक समाज की रचना जीवन में न तो अतीत है, न वर्तमान और न भविष्य करने में समर्थ है। -केवल इनकी एक क्षीण संवेदना ही विद्यमान है। सिकन्दर, चंगेजखां, नादिरशाह महमूद (मेक्लवर) उसकी यह विक्षिप्त मानसिकता गजनवी, आदि आतंकवादो और आततायी हि सामाजिक परिवेश का परिणाम है। एलीनेशन इतिहास में केवल नाम और घटना बनकर रह जहाँ मनोवैज्ञानिक है, एनौमी वहाँ सामाजिक- गए । मानव जाति ने उन्हें इससे अधिक महत्त्व सांस्कृतिक । एनीमी समाज की नियामक संरचना नहीं दिया। के ह्रास का फल है, क्योंकि व्यक्ति को आकांक्षा पर अमर हैं बुद्ध, महावीर, गांधी, और उसकी पूति में भारी व्यवधान और सकट है। ईसा, मुहम्मद और नानक, कनफ्यूसियस आदि इस दुरवस्था के निवारण के लिए हृदय और क्योंकि उन्होंने मनुष्यजीवन को उच्चतम नैतिक मस्तिष्क का परिष्करण या दर्शन और ज्ञान का भूमि पर ले जाकर उसे मानवीय गुणों से समन्वित उदात्तीकरण आवश्यक है और यह व्रत साधन से ही किया। जिन्होंने मानव जाति के विनाश का स्वप्न संभव है। व्रत साधन का व्यष्टि से प्रारम्भ होकर देखा, वे विस्मत हो गए और जिन्होंने उसके उत्थान CL समष्टि की ओर अभिनिविष्ट होना ही सही उप- का सत्संकल्प किया, उसमें योगदान दिया, वे अज चार है। अमर । संस्कृति के विकास में उनकी देन अक्षय है। ___हमें स्मरण रखना चाहिए कि समष्टि यह इस सत्य का प्रमाण है कि मनुष्य की आन्त चेतना और सामूहिक संश्लिष्ट ऐक्य मानवेतर रिकता मूलतः सर्वतोभावेन अहिंसक, शान्ति-प्रिय, सृष्टि में भी जब सहज, स्वसंभूत और सुलभ है, प्रेममय, करुणाश्रित और नैतिक है। जीवन के तब मनुष्य में ही क्यों आज इसका अभाव है ? सभी आदर्शों के मूल में अहिंसा है। अहिंसक समाज विख्यात मनोवैज्ञानिक इरिक इरिकसन इसे ही के लिए व्यक्ति का अहिंसक होना आवश्यक है। 'किंकर्तव्यविमूढ़ता' कहते हैं। उनके अनुसार मनुष्य कौशेयवली ने अहिंसक व्यक्ति और अहिंसक समाज यह नहीं जानता कि वह क्या है, उसकी संलग्नता के पारस्परिक और अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पर कहाँ और किससे है ? यह एक भीषण मानसिक कसस ह ! यह एक भाषण मानासक प्रकाश डालते हए लिखा है कि मन, वचन और रोग है। कर्म से अहिंसक व्यक्ति समाज में सर्वत्र मैत्री, प्रेम ___इसके विपरीत मानवेतर सृष्टि को देखें। और सद्भाव का नियमन करता है। वह समूचे एडवर्ड विल्सन ने अपने आविष्कारों से यह प्रमा- समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। णित कर दिया कि प्रवाल, चींटी, सर्प आदि जीव- इसी से विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा को सर्वोच्च जन्तु भी पूर्णतः सामाजिक और संवेदनशील हैं, धर्म कहा । हिन्दू हो या इस्लाम, ईसाई हो या उनकी सामाजिक संरचना अत्यन्त सुव्यवस्थित है। यहदी, सिख हो या पारसी, सूफी या शिन्तो, सभी आज तो विज्ञान ने पेड-पौधों में भी संवेदनशीलता, ने इसे स्वीकारा। भारतीय वाङमय तो इसी का आत्मसुरक्षा और ज्ञप्ति को प्रमाणित कर दिया उद्घोष है । वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, स्मृति, पुराण, चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 258 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थR650 Jain Eation International

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