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आज मानव चिन्तन एक विचित्र वैचारिक ऊहापोह से संत्रस्त और ग्रस्त है । एक विचारधारा है, जो हिंसा, प्रतिशोध और सत्ता को मनुष्य की प्रकृति का जन्मजात और आवश्यक अंग गिनती है तो दुसरी अहिंसा, समता, सहिष्णुता, मैत्री और सहअस्तित्व को । नीट्शे ने कहा था कि दयनीय और दुर्बल राष्ट्रों के लिए युद्ध एक औषधि है। रस्किन ने माना कि युद्ध में ही राष्ट्र अपने विचारों की सत्यता और सक्षमता पहचानता है। अनेक राष्ट्र युद्ध में पनपे और शांति में नष्ट हो गये। मोल्टेक युद्ध-हिंसा को परमात्मा का आन्तरिक अंग गिनता था। उसकी धारणा थी कि स्थायी शान्ति एक स्वप्न है और वह भी सुन्दर । डार्विन का शक्ति सिद्धान्त तो ज्ञात है हो । स्पेंगलर जैसा इतिहासज्ञ भी युद्ध को मानवीय अस्तित्व का शाश्वत रूप गिनता है। आर्थर कीथ ने युद्ध को मानवीय उत्थान की छंटाई गिना । वैज्ञानिक डेसमोन्ड मोरिस, 'नैकड एप' में राबर्ट आड्रे 'दि टेरीटोरियल इम्पेरेटिव' में, कोनार्ड लारेंज 'आन एग्रेसन' में फ्राइड की मान्यता के पक्षधर हैं कि आक्रामकता और हिंसा मनुष्य की जन्मजात, स्वतंत्र, सहज एवं स्वाभाविक चित्तवृत्ति है।
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अहिंसा और सामाजिक परिवर्तन : आधुनिक सन्दर्भ
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इन भ्रान्त धारणाओं के विपरीत दूसरा व्यापक और स्वस्थ मत है उन विचारकों का, जो अहिंसा के सिद्धांत और दर्शन को आज चिन्तन के नये धरातल पर प्रतिष्ठित कर उसे केवल धर्म और अध्यात्म का ही नहीं, दर्शन और मुक्ति का साधन ही नहीं, सामाजिक परिवर्तन, अहिंसक समाज, विश्वशांति और सार्वभौम मानवीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में भी स्वीकार कर रहा है। यूनेस्को जैसी संस्था ने भी इस पर गम्भीर विचार-विमर्श के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ आयोजित की, सामाजिक सर्वेक्षण और शोध योजनाओं को विविध रूपेण क्रियान्वित किया। आज सभी देशों, वर्गों और समाजों के प्रबुद्ध चिन्तक यह स्वीकारते हैं कि स्थायी विश्वशान्ति के लिए आमूल राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्रान्ति की अपरिहार्य आवश्यकता है, वह केवल महावीर, बुद्ध व गाँधी की अहिंसा से सम्भव है । यों कहना अधिक संगत होगा कि मानव सभ्यता का 'भविष्य अहिंसा व शान्ति पर ही निर्भर करता है। सम्भवतः यही । कारण था कि महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने अपने कक्ष में महात्मा गाँधी का चित्र लगाया। किसी राजनेता और वैज्ञानिक का नहीं । मानव समाज की मूल प्रक्रिया, मानवीय अभिप्रेरणा व प्रयोजन चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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---प्रो० कल्याण मल लोढ़ा (कलकत्ता)
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l की संरचना शांति, सुव्यवस्था और समता की ओर सैकेण्ड पर एक बालक, चिकित्सा के अभाव में | उन्मुख रही है।
विकलांग हो रहा है । अमेरिका नाभिकीय युद्ध के सामाजिक मनोविज्ञान का मूलाधार जिस लिए रसायनिक और जेविक तत्त्वों के मिश्रण से व्यवस्था और संस्थावाद को प्रमुखता दे रहा है, ऐसे अस्त्र बना रहा है, जो विशेष जातियों और उसकी निर्मिति मैत्री, समता और भ्रातृत्व पर ही नस्लों को पहचानकर समाप्त कर देंगे एवं मानवीय आधुत है। प्रसिद्ध विद्वान सी० राइट मिल का इच्छाओं का दमन कर जनता की मानसिकता और कथन है कि आज मनुष्य की समस्त चिन्ताधारा आचरण क्षमता को स्वचालित यन्त्र में बदल देंगे । तृतीय विश्व युद्ध को यथार्थ मानकर भ्रमवश विश्व इसके विपरीत प्रेमचन्द के शब्दों में 'विश्व समर शांति की सम्भावना स्वीकार नहीं करती। पी० का एकमात्र निदान है विम्व-प्रेम ।' इस सन्दर्भ में
सोरोकिन का भी यही अभिमत है। उसकी दृष्टि आज विश्व साहित्य में तकनीकी संस्कृति का घोर o में आज सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक जीवन विरोध हो रहा है। ब्रस मेजलिस ने १९८० में
मल्यहीन, प्रत्ययहीन, आस्थाहीन हो गए हैं और लिखा कि आविष्कारों की महानता और उनके Gll स्पर्धा एवं संकटग्रस्त होकर चारों ओर विनष्टि- परिणामों के हीनता की घोर विषमता से मैं हैरान वादी कटुता का बोलबाला है।
हूँ। नारमन कंजिल्स ने कहा कि 'अंतरिक्ष की ___ आइन्सटीन ने तो स्पष्ट कह दिया था, 'हमें मानवयात्रा का महत्व यह नहीं है कि मनुष्य ने मानवता को याद रखना है जिससे हमारे समक्ष चन्द्रमा पर पैर रखे पर यह है कि उसकी दृष्टि १ स्वर्ग का द्वार खुल जायेगा अन्यथा सार्वभौम मृत्यू वहाँ भी अपनी पृथ्वी पर ही लगी रही।' यही । को ही झेलना होगा। कोई अंधी मशीन हमें अपने सोचना है कि मनुष्य की इस सर्वव्यापी चारित्रिक |
विकराल वज्र दन्तों में जकड़ लेगी।' एक ओर आन्तरिक बाह्य अस्मिता के संकट से मुक्ति का CV/ विश्व संहार का यह भय और आतंक है, तो दूसरी उपाय अहिंसक क्रान्ति देकर क्या स्थायी शांति और /
ओर यह मान्यता जोर पकड़ रही है कि रचनात्मक सुव्यवस्था का प्रमाण बन सकती है ? इसी दृष्टि से पदार्थवाद और नैतिक क्रान्ति मानवीय मूल्यों के आज गम्भीर विचारक और चिन्तक अहिंसा के । मानदण्ड के रूप में ही अहिंसक समाज व संस्कृति दार्शनिक और धार्मिक पक्ष के साथ-साथ उसकी के लिए स्थायी विश्वशान्ति के हेत बन सकते हैं। सामाजिक, आथिक और राजनैतिक उपयोगिता सामाजिक व सांस्कृतिक विकास आज द्वयर्थक हो और इयत्ता पर उन्मुक्त भाव से विचार कर रहे हैं । रहा है। एक ओर तकनीकी व वैज्ञानिक आवि- एक उदाहरण पर्याप्त होगा। कारों ने राष्ट्रों के आचार-विचार-व्यवहार में परि- टी. के. उन्नीथन एवं योगेन्द्रसिंह के सर्वेक्षण के वर्तन कर दिया है तो दूसरी ओर सत्ता व शासन की अनुसार आज नेपाल, श्रीलंका और भारत का अमित महत्वकांक्षाओं ने चुनौतियाँ उत्पन्न करतनाव ७० प्रतिशत कुलीन बर्ग और ६३८ सामान्य वर्ग और संघर्ष उपस्थित किया है। कोई राष्ट्र अन्य उन्नत अहिंसा को प्रधानतः राजनीतिक और सामाजिक राष्ट्रों से पिछड़ना नहीं चाहता, दूसरी ओर सामान्य स्वरूप में स्वीकार करता है। ये वर्ग सभी धर्मों के जनता शान्ति, सुव्यवस्था और सामाजिक परि- हैं । इन वर्गों की दृढ़ मान्यता है कि अहिंसा की वर्तनों की मांग कर परस्पर सौमनस्य और सौरस्य उपलब्धि से मानव जाति का नैतिक और आध्याका आग्रह कर रही है । युद्ध की भयावहता इससे त्मिक विकास होगा। उन्नीथन ने अहिंसा की। ही स्पष्ट है कि आज संहार अस्त्रों पर तीस हजार संगति और स्वीकृति का समाजशास्त्रीय पद्धति से डालर प्रति सैकेण्ड खर्च हो रहे हैं और उधर हर दो विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है कि "हमारे । ३४४
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समक्ष दो ही विकल्प हैं-या तो परम्परा से प्राप्त हीन अधिग्रहण और अवाप्ति की लालसा ने उसकी ! नतिक व्यवस्था स्वीकार करें या फिर समाज से स्वस्थ मानसिकता नष्ट कर दी है। हिगेल के शब्दों 12 निःसृत उसकी प्रायोगिक मान्यता को । परन्तु यहीं में 'मनुष्य सबसे सौभाग्यपूर्ण प्राणी है क्योंकि वह प्रश्न उठता है कि, वर्तमान अनैतिक समाज से अकेला (रोबिनसन क्रू सो की भाँति) नहीं रह 0 हम किस प्रकार नैतिक व्यवस्था प्राप्त कर सकते सकता, पर वह सबसे अभागा भी है क्योंकि अन्य हैं ? सत्ता और व्यवस्था की संकल्पना लोकोत्तर मनुष्यों के साथ सौमनस्य और प्रेम से भी नहीं ४ होनी चाहिए, जो विद्यमान परिस्थितियों से उत्पन्न रहता'- अर्थात् सामाजिकता की प्रकृत आकांक्षा के
प्रत्ययात्मक और पारम्परिक हो ।" डा. राधा- साथ ही उसमें विकृत असामाजिकता है। कृष्णन के शब्दों में 'अहिंसा कोई शारीरिक दशा वह प्रकृति के सनातन नियमों को भूल गया नहीं है, अपितु यह तो मन की प्रेममयी वृत्ति है।' है। आर्थिक व राजनैतिक जीवन की केन्द्रस्थ मानसिक स्थिति के रूप में अहिंसा केवल अप्रति- यान्त्रिकता में, वह व्यक्तित्व की स्वतन्त्रता खी रोध से भी भिन्न है। वह जीवन का एक समर्थ बैठा । उसके दिल और दिमाग पर शासन तन्त्र रचनात्मक पक्ष है । मानव कल्याण की भावना ही की क्रूरता और निरंकुशता हावी है। समाजसच्चा बल और सर्वश्रेष्ठ गुण है। वाल्मीकि कहते शास्त्रियों ने व्यक्ति की इस विकृत मानसिकता का हैं- “योद्धा का बल घृणित है, ऋषि का बल ही विशद् विवेचन किया है। सामाजिक, आर्थिक सच्ची शक्ति है-धिग्बलम क्षत्रिय बलम, ब्रह्म तेजो- दृष्टि से एक ओर वह अतीव परिग्रहवादी है, बलं बलम् ।" अहिंसक मनि, ऋषि या संन्यासी दूसरी ओर वह वर्तमान संस्कृति की जड़ता से प्रत्यक्षतः सामाजिक संघर्ष में भाग नहीं लेते पर विच्छिन्न । इसी को समाजशास्त्र में 'एनोमो' और उनका योगदान निविवाद है।
'ऐलिनेशन' कहा गया है। मार्क्स ने अपने सिद्धांतों
में भिन्न दृष्टि से व्यक्ति के ऐलिनेशन पर विचार पुनः डा. राधाकृष्णन के अनुसार वे “सामा- किया। एलिनेशन की विवेचना करते हुए गर्सन | जिक आन्दोलन के सच्चे निदेशक हैं। उन्हें देख
का मत है कि तकनीकी-औद्योगिक क्रान्ति, ISI कर हमें अरस्तू की 'गतिहीन प्रेरक शक्ति' का
नौकरशाही, विलास वैभवपूर्ण जीवन प्रक्रिया, स्मरण हो जाता है।" ताल्सताय ने अपने प्रसिद्ध
प्रसिद्ध आदर्शों का लोप, नैतिक मूल्यों का ह्रास, विकृत उपन्यास 'युद्ध और शान्ति' में लिखा है-"युद्ध मनोविज्ञान (फ्राइड आदि का) इस मानसिक एक सामूहिक हत्या है, जिसके उपकरण हैं, देश विच्छति के कारण हैं। इसका अर्थ है कि आज द्रोह को प्रोत्साहन, मिथ्याभाषण, निवासियों का व्यक्ति एकाकीपन, अनैक्य, असन्तोष का शिकार | विनाश आदि ।"
होकर वह अपने वृहत् सामाजिक सम्बन्धों को पहले हम अहिंसा द्वारा सामाजिक परिवर्तन विस्मृत कर रहा है। उसे न तो अपने से सन्तोष है की सम्भावनाओं पर विचार करें। एरिक फ्रोम के और न अपनी उपार्जन क्षमता से । वह असंयत अनुसार आज साधन को ही साध्य समझना सामा- है। सांस्कृतिक संकट उसे हतप्रम कर रहा है
जिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विसंगति है । भौतिक उसकी आकांक्षाओं और उपलब्धियों में प्रचुर 4 समृद्धि के लिए उत्पादन और उपभोग के साधन व्यवधान है। उसकी एषणाओं का अन्त नहीं।
हमारे साध्य बन गए हैं इसी से आज सम्पूर्ण समाज वह अर्थरहित, मूल्यविहीन, एकाकी, आत्मअपने आदर्श और उद्देश्य से च्युत हो गया है। निर्वासित और शक्तिहीन है । यही उसका सांस्कृमनुष्य मनुष्य से भयभीत है । उसकी वैयक्तिक अन्त- तिक विघटन है। आज यह आत्मविमुखता और
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ला सांस्कृतिक अलगाव चारों ओर व्याप्त है। एनौमी है। इसी संवेदना का अनुभव कर परमहंस श्री
वह मानसिक दशा है, जिसमें नैतिक जड़ें नष्ट हो रामकृष्ण ने पत्त, फूल और पौधों को छूना तक द जाती हैं-मनुष्य विशृंखलित होकर अपना नैरन्तर्य नहीं चाहा। हि खो बैठता है-आध्यात्मिक स्तर पर वह अनुर्वर हमें यह मानना चाहिए कि अहिंसा आज के
और निर्जीव है । उसका दायित्व बोध किसी के प्रति विघटित, संत्रस्त और किंकर्तव्यविमूढ़ मनुष्य को. नहीं है । उसका जीवन पूर्णतः निषेधात्मक है । उसके निश्चित सुव्यवस्था देकर अहिंसक समाज की रचना जीवन में न तो अतीत है, न वर्तमान और न भविष्य करने में समर्थ है। -केवल इनकी एक क्षीण संवेदना ही विद्यमान है। सिकन्दर, चंगेजखां, नादिरशाह महमूद
(मेक्लवर) उसकी यह विक्षिप्त मानसिकता गजनवी, आदि आतंकवादो और आततायी हि सामाजिक परिवेश का परिणाम है। एलीनेशन इतिहास में केवल नाम और घटना बनकर रह
जहाँ मनोवैज्ञानिक है, एनौमी वहाँ सामाजिक- गए । मानव जाति ने उन्हें इससे अधिक महत्त्व सांस्कृतिक । एनीमी समाज की नियामक संरचना नहीं दिया। के ह्रास का फल है, क्योंकि व्यक्ति को आकांक्षा पर अमर हैं बुद्ध, महावीर, गांधी, और उसकी पूति में भारी व्यवधान और सकट है। ईसा, मुहम्मद और नानक, कनफ्यूसियस आदि इस दुरवस्था के निवारण के लिए हृदय और क्योंकि उन्होंने मनुष्यजीवन को उच्चतम नैतिक मस्तिष्क का परिष्करण या दर्शन और ज्ञान का भूमि पर ले जाकर उसे मानवीय गुणों से समन्वित उदात्तीकरण आवश्यक है और यह व्रत साधन से ही किया। जिन्होंने मानव जाति के विनाश का स्वप्न
संभव है। व्रत साधन का व्यष्टि से प्रारम्भ होकर देखा, वे विस्मत हो गए और जिन्होंने उसके उत्थान CL समष्टि की ओर अभिनिविष्ट होना ही सही उप- का सत्संकल्प किया, उसमें योगदान दिया, वे अज चार है।
अमर । संस्कृति के विकास में उनकी देन अक्षय है। ___हमें स्मरण रखना चाहिए कि समष्टि यह इस सत्य का प्रमाण है कि मनुष्य की आन्त
चेतना और सामूहिक संश्लिष्ट ऐक्य मानवेतर रिकता मूलतः सर्वतोभावेन अहिंसक, शान्ति-प्रिय, सृष्टि में भी जब सहज, स्वसंभूत और सुलभ है, प्रेममय, करुणाश्रित और नैतिक है। जीवन के तब मनुष्य में ही क्यों आज इसका अभाव है ? सभी आदर्शों के मूल में अहिंसा है। अहिंसक समाज विख्यात मनोवैज्ञानिक इरिक इरिकसन इसे ही के लिए व्यक्ति का अहिंसक होना आवश्यक है। 'किंकर्तव्यविमूढ़ता' कहते हैं। उनके अनुसार मनुष्य कौशेयवली ने अहिंसक व्यक्ति और अहिंसक समाज यह नहीं जानता कि वह क्या है, उसकी संलग्नता के पारस्परिक और अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पर कहाँ और किससे है ? यह एक भीषण मानसिक
कसस ह ! यह एक भाषण मानासक प्रकाश डालते हए लिखा है कि मन, वचन और रोग है।
कर्म से अहिंसक व्यक्ति समाज में सर्वत्र मैत्री, प्रेम ___इसके विपरीत मानवेतर सृष्टि को देखें। और सद्भाव का नियमन करता है। वह समूचे एडवर्ड विल्सन ने अपने आविष्कारों से यह प्रमा- समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। णित कर दिया कि प्रवाल, चींटी, सर्प आदि जीव- इसी से विश्व के समस्त धर्मों ने अहिंसा को सर्वोच्च जन्तु भी पूर्णतः सामाजिक और संवेदनशील हैं, धर्म कहा । हिन्दू हो या इस्लाम, ईसाई हो या उनकी सामाजिक संरचना अत्यन्त सुव्यवस्थित है। यहदी, सिख हो या पारसी, सूफी या शिन्तो, सभी आज तो विज्ञान ने पेड-पौधों में भी संवेदनशीलता, ने इसे स्वीकारा। भारतीय वाङमय तो इसी का आत्मसुरक्षा और ज्ञप्ति को प्रमाणित कर दिया उद्घोष है । वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, स्मृति, पुराण,
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महाभारत, धर्मशास्त्र आदि सब अहिंसा को किसी न किसी प्रकार मनुष्यजीवन का प्राण तत्व गिनते हैं, ' मा हिंस्यात् सर्वं भूतानि' । अहिंसा का नैतिक राज्य ही सर्वोत्तम है | छांदोग्य उपनिषद कहता है कि यज्ञों में बलि नैतिक गुणों की ही देनी चाहिए 'अथयत् तपोदानं आर्जव, अहिंसा, सत्यवचनं इतिता अस्य दक्षिणा : ' (३ - १७ ) - आरुणिकोपनिषद शाण्डिल्योपनिषद ने भी यही माना ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा चापरिग्रहं च सत्य च यत्नेनहे रक्षतो हे, रक्षतो है, रक्षत इति ( आरुणिकोपनिषद -- ३ )
मनु जैसे आचार्यों ने ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर भी यह कहा 'अहिंसयेव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ' ( ३- १५६ ) महाभारत की तो स्पस्ट घोषणा रही - अहिंसा सकलोधर्मो हिंसा धर्मस्तथाहितः' (शान्ति पर्व २७२ - २० ) अनुशासन और शान्ति पर्व इसी अहिंसक समाज की संकल्पना करते हैं-- 'अहिंसा परमोधर्मः अहिंसा परमं तपः, अहिंसा परमं सत्यं ततो धर्म प्रवर्तते'आदि | महाभारत के अन्त में महर्षि व्यास तक को कहना पड़ा कि 'परोपकार पुण्याय पापाय परपीड़नम् ।' पद्मपुराण कहता है
'अहिंसा प्रथमं पुष्पं पुष्पं इन्द्रिय निग्रहः । सर्व भूत दया पुष्पं, क्षमा पुष्पं विशेषतः ।' महाभारत में राजविचक्षण, वृहद् धर्म पुराण में परशुराम और शिव का संवाद इसके प्रमाण हैं ।
वायु पुराण का यह कथन पर्याप्त है- 'अहिंसा सर्वभूतानां कर्मणा मनसा गिरा ।' विष्णु पुराण में हिंसा के पारिवारिक रूप की चर्चा की गई है । अनृत, निकृति, भय, नरक, सन्तान, माया, वेदना, व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा, क्रोध उसकी परम्परा है। इसके विपरीत अहिंसा के लिए ब्रह्म पुराण स्पष्ट कहता है 'सर्व भूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु' । पुराण ही क्यों, समस्त भारतीय वाङ
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मय, इसी की साक्षी देता है । भारतीय संस्कृति की नैतिकता धर्म पर सर्वाश्रित है। महावीर का तो जीवन ही इसका दिव्य संदेश है । इतिहास में महावीर ( और बुद्ध) शाश्वत ज्योतिपुंज हैं, जो मानवजीवन के अन्तर्बाह्य अन्धकार को अहिंसा व करुणा से, अपरिग्रह व मैत्री भावना से दूर कर सदा-सदा आलोक विकीर्ण करते रहेंगे । महावीर का जीवन, व्यक्तित्व और कर्तृत्व ही इसका उदाहरण है । कितने परीषह और उपसर्गं आये, कितनी चुनौतियाँ उन्होंने झेलीं, कितनी उपेक्षाएँ सहीं, पर वह - 'आलोक पुरुष मंगल-चेतन' शान्त, स्थिर और दृढ़ निश्चय से अहिंसा द्वारा मनोगत अन्धकार को विनष्ट कर हमें ज्योतिर्मय कर गया । आभ्य'सत्वापि सामथ्ये अपकार सहनं क्षमा' की वे मूर्ति तर व बाह्य दासत्व से उसने हमें मुक्ति दी ।
थे ।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार 'यदि तौर डाक शुनै कोई न आशे, तबै एकला चलो रे' - वे अकेले ही यात्रा करते रहे- निर्भय और निःशंक होकर । अपरिचितों से न भय था और न परिचितों में आसक्ति । उनका जीवन पराक्रम, पुरुषार्थ और परमार्थ से सम्पूर्ण था । संकीर्ण मनोवृत्ति का उन्होंने त्याग किया। चंडकौशिक हो या संगम, यक्ष या कटूपतना, गौशालक हो या इन्द्रभूति गौतम सबके प्रति वही समभाव, वही सद्भाव । क्रोध, मान, लोभ, मोह कहाँ गये थे कषाय । समाप्त हो गये । महावीर का जीवन ही उनकी साधना का रहस्य है, अहिंसा की मंजूषा है। उन्होंने बताया कि अहिंसा का दर्शन सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान है ।
आज जब पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, प्राकृ तिक संतुलन बिगड़ रहा है, पशु-पक्षी, जन्तु मनुष्य की हिंसक वृत्ति से समाप्त हो रहे हैं, महावीर ने आचार-विचार और व्यवहार के साथ-साथ आहार का शाकाहार का भी प्रमाण दिया - वे केवली थेत्रिकालज्ञ, दिव्य । हिंसा पाप है, रौद्र है, भय है,
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मोह है: एसो सो पाणवहो पावो, चण्डो, रुद्दो .... मोह महब्भयत्तवहओ ।
और
अहिंसा, समस्त जीवों के प्रति संयमपूर्ण आचरण-व्यवहार है- अहिंसा निऊणा दिट्ठा, सव्व भूएसु संजमो ।' वे सदा यही सिखाते रहे कि मनुष्य का चरित्रात्मक आन्तरिक रूपान्तरण मुख्य है, और इसके साधन है अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और समता । यही मानवतावाद या समष्टिवाद की आधारशिला है । एक जैनाचार्य का कथन है अहिंसा ही प्रमुख धर्म है, अन्य तो उसकी सुरक्षा के लिए है - 'अवसेसा तस्स रखणट्ठा ।'
आध्यात्मिक चेतना की ऊर्ध्व गति से ही सम्भव है-- सनातन मूल्यबोध । वीर प्रभु ने इसी से शान्ति मार्ग पर चलने को कहा -
बुद्ध परिनिव्वुडे च
गाम गए नगरे व संजए ।
सन्ति मग्गं च बूहुए
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समयं गोयम ! मा पमायए ।
- उत्तराध्ययन सूत्र १० / ३६ अहिंसा की साधना ही शान्ति का मार्ग है । वे कहते हैं 'बुद्ध, तत्वज्ञ और उपशान्त होकर पूर्ण संयतभाव से गौतम ! गाँव एवं नगर विचरण कर । शान्तिपथ पर चल । अहिंसा का प्रचार कर । क्षण भर भी प्रमाद न कर।' उन्होंने बताया कि धर्महीन नीति समाज के लिए अभिशाप है और नीतिहीन धर्माचरण केवल वैयक्तिक । धर्म व्यवहार से उत्पन्न है, ज्ञानी पुरुषों ने जिसका सदा आचरण किया वे व्यवहार और आचरण ही अपेक्षित हैं । इस प्रकार महावीर ने अहिंसा को वृहत् और व्यापक सामाजिक धरातल दिया । उनका विधान था 'चारितं धम्मो ' सदाचार ही चारित्र धर्म है । व्यक्ति की हो, चाहे समाज या शासनतन्त्र की, हिंसा का कारण भय और क्रोध है । जैनधर्म कषाय को कालुष्य का कारण मानता है- आवेश, लालसा,
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अधिकारलिप्सा और वित्तेषणा ही हिंसा और परिग्रह के हेतु है, 'गंथेहि तह कसाओ, वड्ढइ विज्झाई तेहि विणा ।' आधुनिक समाजशास्त्र व मनोविज्ञान में भी क्रोध, मान, माया और लोभ का वैज्ञानिक पद्धति से निरूपण मिलता है । क्रोध को ही लें। क्रोध प्रतिशोध माँगता है, वह मानसिक और शारीरिक संतुलन नष्ट कर देता है । भगवती सूत्र में इसकी विभिन्न अवस्थाओं का विवरण प्राप्त होता है। भगवान महावीर कहते हैं क्रोध - उचित अनुचित का विवेक नष्ट करने वाला है, वह प्रज्वलन रूप आत्मा का दुष्परिणाम है।
आज मनोविज्ञान ने भी इस तथ्य को भलीभाँति उजागर कर दिया है। चरक ने तो यही बताया कि क्रोध आदि विकार से व्यक्ति ही नहीं, उसके आसपास का वातावरण भी विकृत हो जाता है । व्यक्ति और समाज में सार्वदेशिक शान्ति तभी सम्भव है जब हम अपनी जीवन प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन करें। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक इरिक बर्न का कथन है
'मनुष्य की रचनात्मक जिजीविषा और संहारात्मक विजीगिषा वह कच्चा माल है, जिसका आज मनुष्य और संस्कृति को उपयोग करना है - समाज और मानवजाति की संरक्षा के लिए उसे संहारात्मक विजीगिषा समाप्त कर रचनात्मक जिजीविषा को आध्यात्मिक व जागतिक समृद्धि में लगाना होगा ।'
व्यक्ति का मानसिक विकास और सामाजिक शान्ति इस पर निर्भर करती है कि वह इन जन्मजात शक्तियों का किस उद्देश्य से प्रयोग करे । व्यक्ति का मानसिक संतुलन ही सामाजिक संतुलन का प्रथम चरण है । महावीर ने अपनी सारी शक्ति इसी में लगाई। उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त को मनुष्य या पशु हिंसा तक ही सीमित न रखकर समस्त सचराचर जगत पर, षटकाय जीवों पर, जीवन के प्रत्येक पहलू और पक्ष पर अनिवार्य
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KASARA
समझा । अहिंसा के निषेधात्मक और विधेयात्मक यथार्थ प्रजातन्त्र की स्थापना का समर्थ साधन है या दोनों रूपों पर गहन विचार किया। भाव हिंसा (यंग इंडिया-मार्च १६, १९२५) हिंसा सामाजिक
और द्रव्य हिंसा का सर्वांगीण विवेचन कर हिंसा के दुराग्रह है, अहिंसा सत्याग्रह । वर्तमान समय में पाँच समादान बताए। उन्होंने कहा--'अहिंसा जनता का विरोध व्यक्ति और सम्पत्ति के विरुद्ध निउणा दिट्ठा सव्व भूएसु संजमो (दशवकालिक हिंसापरक बन जाता है, ऐसा विरोध सामाजिक
5-) क्योंकि सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है- परिवर्तन का उपकरण कभी नहीं बन सकता, वह तो Sil सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल । 'अप्पिय वहा, अव्यवस्था, तनाव और निराशा को पनपाकर और मा पिय जीवणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं' अधिक हिंसात्मक कार्रवाई का निमित्त बनता है ।
(आचारांग १-६२-७) महावीर की इस अहिंसा आधुनिक चिन्ताधारा के अन्य सिद्धान्तों का / संस्कृति को ही आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने तथ्यानशीलन भी करें। अपनाया, विनोबा भावे ने सर्वोदय सिद्धान्त में
स्वीडन अर्थशास्त्री एडलर कार्लसन ने इस प्रमुख माना।
दृष्टि से 'विपर्यस्त उपयोगितावाद' की व्याख्या नीग्रो नेता मार्टिन किंग लूथर का उद्धरण करते हुए लिखा है-'हमें अपनी सामाजिक भी यहाँ समीचीन होगा 'अहिंसक व्यक्ति की यह व्यवस्था का पुननिर्माण मनुष्य के कष्टों को मान्यता है कि अपने विरोधी की हिंसा के कम करने के लिए करना चाहिए। जो आज समक्ष भी वह आक्रामक भाव न रखे अपितु यह धनी और समृद्ध हैं उनका आर्थिक स्तर बढ़ाना एक सत्प्रयास करे कि उसकी हिंसात्मक या आक्रामक खोखला व सारहीन विचार है। जब तक प्रत्येक शक्ति का निरसन अहिंसा से संभव हो सकेगा।' व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति न हो जाए,
लूथर कहता है 'धिक्कार के बदले धिक्कार वापस कोई भी अधिक समृद्ध न हो इसके लिए आव57 लौटाने से धिक्कार का गुणन होता है, अन्धकार श्यक है-नैतिक साधन न कि भौतिक उपाय ।' ये । कभी अन्धकार दूर नहीं करता-हिंसा से हिंसा की नैतिक साधन ही व्यक्ति और समाज को शांति
१ वृद्धि होती है ।' महात्मा गाँधी ने इसको ही सार्व- लाभ दे सकते हैं। इसी से मनोविश्लेषणात्मक । भौम प्रेम और सर्वाधिक दम कहा था। अहिंसा चिकित्सा अब (जूलियस सेगल के शब्दों में)
व्यक्ति को अभय करती है और दूसरों को भी। मानसिक रोग और पीड़ा से मुक्ति के लिए आत्मला अभयं वै ब्रह्म मा मैषी-यही उसका मंत्र है। परितोष पर अधिक बल देती है-आत्मोपलब्धि 5 विनोबाजी के शब्दों में इससे मनुष्य सत्यग्राही पर, क्योंकि इसी से व्यक्तित्व का स्वस्थ और होता है।
समीकृत विकास संभव है। मनुष्य के प्रकृत मूल्य का बेलजियन समाजवादी चिन्तक बार्ट डे बोध से अव्यवस्था को भी सुव्यवस्था में परिणत / लाइट ने लिखा-'हिंसा का प्राचुर्य जितना अधिक किया जा सकता है । ल्योन आइजनबर्ग ने इस पर
होगा, क्रांति उतनी ही कम । ऐसीमोव का वाक्य जोर दिया है कि 'हमें मनुष्य की प्रकृति का हो ला है 'हिंसा असमर्थ आदमी का अन्तिम आश्रय है।' मानवीकरण करना है क्योंकि मानवीय हिंसा IN हिंसा और कटुता के मध्य सामाजिक परिवर्तन सामाजिक दमन का हेतु नहीं उसकी प्रतिक्रिया का 6 अपनी शक्ति और अर्थवत्ता समाप्त कर देता है। परिणाम है।'
आज की जनतांत्रिक पद्धति की मूलभूत आवश्य- वर्तमान विसंगति यह है कि आज बालक कता हिंसाविहीन शासन तन्त्र से ही संभव है। या किशोर वर्ग जब युवावर्ग को संघर्ष और महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा का विज्ञान ही हिंसारत देखता है, जब जातीय नेता स्वार्थ व सत्ता | चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 59 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ )
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के लिए यही मार्ग अपनाते हैं, तो वह भी इस समझाते रहे 'विसंकटकओव्व हिंसा परिहरियव्वा । दुष्प्रभाव में आकर उसी पथ पर चलता है-उनका तदो होदि ।' अनुकरण करता है। इसी से ल्योन आइजनबर्ग
___ सबके साथ मैत्री भाव रखो, किसी से वैर-d कहता है कि हिंसा दुष्परिणाम है अन्तरवर्ग संघर्ष ।
सिख विरोध न हो। यदि युद्ध ही करना है तो अपने हा का.जिसे हमारे नेता बढ़ावा दे रहे हैं। हमें समस्त से करो। आन्तरिक शद्धि ही सर्वश्रेष्ठ है, बाह्य मानव समाज को अविभक्त इकाई के रूप में ग्रहण
शूद्धि सूमार्ग नहीं । धन और संग्रह प्रमाद का कारण कर मानवीय मूल्यों का विकास करना होगा।
है-'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा भ्रातृत्व और मैत्री का सिद्धान्त प्राचीन है, पर
परत्था ।' 'लाभस्सेसो अणु फासो मन्ने अन्नय-ie आज मानव अस्तित्व की रक्षा की वह प्रथम अनि
राभावे' उन्होंने सदैव जाग्रत रहने को कहा-विनय वार्यता है।
और विवेक को आत्मज्ञान को पीठिका बताया। हमें यह निःसंकोच स्वीकार करना होगा शोषण और परिग्रह का खुलकर विरोध कियाकि मनुष्य ही अपना भाग्यविधाता है व पुरु- क्योंकि 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो-पवड्ढइ' ||८ षार्थ ही उसका नियामक है। प्रसिद्ध विचारक परिग्रही को शान्ति, सुख और सन्तोष कहाँ-वह बन्ड रसल ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों तो 'सव्वतो पिच्छतो परिमसदि पलादि मुज्झदिय । में जीवन की इस आंतरिक प्रक्रिया को- अहिंसा, यही तो अहिंसा का राजपथ है-शान्त, स्थिर, सत्य, समता, अपरिग्रह और सात्विक आचरण को सौम्य और श्रेष्ठ । ही प्रमुख गिना है।
आज की भयभीत संत्रस्त और अभिशप्त ये विद्वान विचारक आज जिस तथ्य की ओर मानव जाति के लिए यही तो परमौषधि संकेत कर रहे हैं, शताब्दियों पूर्व भगवान महावीर संजीवनी है, लोकहित और सर्वभूतहित की, ने यही बताया था। उन्होंने 'आयओ बहिया पास सर्वोदय की, सामाजिक परिवर्तन की । महावीर की तम्हा न हन्ता न विघाइए।' अहिंसा के द्वारा विश्व परम्परा में ही महात्मा गाँधी ने भी यही मार्ग मैत्री का संदेश दिया, मनुष्य मनुष्य को समान अपनाया और कहा-सामाजिक और आर्थिक व बताया
अहिंसा ही स्थायी शान्ति की जननी है। अहिंसा से
ही मानवसमाज वर्तमान विभीषिका, विजीगिषा "चरणं हवइ सधम्मो सो हवइ अप्पसमा वो'
और विसंगति से मुक्त हो सकता है। उन्होंने स्पष्ट सो राग रोस रहिओ जीवस्स अण्ण परिणामो ।" कहा कि एक सच्चा अहिंसक व्यक्ति समस्त समाज न कोई जाति उच्च है और न कोई हीन-नो
__ का रूपान्तरण कर सकता है। महावीर ने यही
किया और यही कहा । श्रीगुणवन्त शाह ने ठीक हो हीणो णो-अइरित्ते णो पीहए' उन्होंने सत्य की
। कहा है कि आज जैन (और अहिसा) दर्शन की सापेक्षता के साथ-साथ सहअस्तित्व पर जोर दिया,
' सार्थकता अहिंसक समाज की रचना की स्थापना में पुरुषार्थ के लिए कहा-पुरिसा !तुममेव तुम मित्त, किं बहिया मित्तमिच्छसि । कषाय व दुष्प्रवृत्तियों से १ मुक्ति का मार्ग बताया,आध्यात्मिक विकास के साथ ऐसे समाज में शाकाहार का बोलवाला होगा, मानवीय उच्चता और चारित्र पर दृष्टि रखी। प्रदूषण न्यूनतम होगा, शोषण नहीं के बराबर और उनका उद्घोष था-'सच्चं मिधिति कुव्वह।' आर्थिक असमानता एकदम कम होगी और युद्ध जहाँ सत्य है वहाँ भय नहीं । 'न भाइयव्वं ।' वे सदा के लिए नहीं होगा। आज हमें अहिंसा को
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________________ % D जीवन के साथ जोड़ना है। अहिंसक समाज का जिक परिवर्तन के लिए सूक्ष्म और महत् अहिंसा 7 अर्थ है प्रेम, करुणा और मित्रता का समाज / इसी व्यक्ति और समाज दोनों के लिए अनिवार्य हैसे आज के संघर्ष में अहिंसा के धार्मिक मूल्य के वही केवल मात्र साधन है। आणविक युद्ध के न साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और होने पर भी, पृथ्वी मौन भाव से हमारी जीवन मानवीय मूल्य एवं अर्थवत्ता भी नितान्त आवश्यक कृत प्रक्रिया के कारण नष्ट हो रही है, उसे यदि है, यदि यह नहीं होता है तो पृथ्वी पर जीवन के बचाना है तो उसमें आमूल परिवर्तन करना अति नाश के चिह्न स्पष्ट है / महावीर को विचार क्रांति आवश्यक और अनिवार्य और यह अहिंसा को अपही हमारे आचार का आश्रय है, सम्बल है / सामा- रिमेय व्यक्ति से ही सम्भव है। HAMAKER BY.PHY AdA IFAON 6 - --- ----सन्दर्भ स्थ ल - - - - - ---6 Carles Ronmolo : Truth and Non-Voilence (UNESCO-SYMPOSIUM) RC. Wright Mill : The Causes of World War Three, 1950 3 P. Sorokin : The Reconstruction of Humanity. 8 Eihustin : Interview, July, 1955 5T. Unnithan Yogendra Singh : Sociology of Non-Voilence. 6 J. S. Mathur P.C. Sharma : Non-Voilence and S.cial Change g Unto Tahzinen : Ahinsa 5 Kausleya Walli : Ahinsa in Indian Thought. S. Radhakrishnan : Religion and Society 10 P. Sorokin : Social and Cultural Dynamics 11 Eric Berne : A Layman's Guide to Psychiatry and Psychoanalysis 12 वी. एन. सिन्हा गुणवंतशाह : जैन धर्म में अहिंसा / महामानव महावीर 13 युवाचार्य महाप्रज्ञ : महावीर की साधना का रहस्य 14 मुनि नथमल : अहिंसा तत्व दर्शन 15 बेचरदास शास्त्री : महावीर वाणी 16 E. Hytton : Non-Voilence and Developmental Work 17 Alduous Muxley : Ends and Means 18 Edward Wilson : Sociobiology 19 M. Francis Abraham : Sociob ology : Modern Social Theory 20 सर्व सेवाश्रम प्रकाशन : समता सूत्र 21 श्रीचन्द रामपुरिया : महावीर वाणी 22 निर्मल कुमार : भगवान महावीर 23 डा. भागचन्द शास्त्री : जैनदर्शन व संस्कृति का इतिहास 24 मुनि अमोलक ऋषि : जैन धर्म व दर्शन 25 गुणवन्त शाह : महामानव महावीर विभिन्न जैनागम, यंग इण्डिया, अमेरिकन रिव्यू आदि पत्रिकाएँ / 351 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थG620 9 . Jalliducation International Por Private & Personal Use Only www.ja berary.org