Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Mehta Mohanlal Damodar
Publisher: Mehta Mohanlal Damodar

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Page 8
________________ जैन आगमोनी मूळ संख्या ८४नी हती. तपांथी हाल ३२ आपणी मान्यता मुजद विद्यमान छे, एम कहेवाय छे, राज्य बदला, उत्तेजननो अभाव, पुस्तकोने भंडार दाखल करी उधाइने खवडाकी देवानी कुटेव, अने प्राकृत भाषाज्ञ पंडितोनी गेरहाजरी art कारणाने लइने संख्याबंध आगमो लय पाम्यां छे. प्राचीन काळमां छापवानी कळानो शोध नहोतो थयो ते वखते नाश थाना भी धर्म-पुस्तकोने भंडारमा साचवी राखवानुं धोरण सकारण गणी शकाय, परंतु सांप्रत समये तेम करवानी जरुर नयी. जुदा जुदा भंडारसांथी अकेक ग्रंथनी जुदी जुदी प्रतो मेळवी, संशोधन करावी, प्रचलित भाषामां तेनां भाषान्तरो करावी, तेन प्रसार करवानी खास जरूर छे; अने कोन्फरन्स अने अन्य मंडळोनी ए पवित्र फरज छे. तेम थशे त्यारे अने त्यारेज जैन धर्मना उत्तम सिद्धान्त अने अप्रतिम तत्वज्ञाननो प्रकाश जगतमा फेलाशे अने अनेक जीवोनी उन्नतिनो मार्ग खुल्लो थशे. अ अंतःकरणपूर्वक मानीए छीए अने जाहेर करीए छीए के आ सूत्रनुं भाषान्तर प्राकृत भाषानुं ज्ञान घरावनार अने धर्मना सिद्धान्तोनो विशाळ अनुभव घरावना कोइ विद्वानने हाथे थयुं होत तो वधारे सारं. परंतु ए आशामां काळ व्यतीत करवा करतां गजा विनापण अल्प शक्ति, अल्प ज्ञान अने अप अनुभवना आधारे आ साहस उठाव्युं छे, तेमां जे जे दोष दृष्टिए आवे 'तेने माटे असे क्षमा याचीर छीए. निर्दोष एको हरिः । भाषान्तर करवामां शब्दार्थ करतो वाक्यार्थ उपर खास लक्ष्य आप्युं छे, कारणके सूत्रनां फरमान अने भावार्थ सरळताथी समजाय अने वर्त्तनमां तेनो सदुपयोग थाय एम अमाने उद्देश छे. ए उद्देश केटला अंशे पार पड्यो छे ए निर्णय करवानुं काम वाचक वर्ग छे, अमारुं नथी. गुचवाडा भरली भाषामा न गुंचवाता, सरळ अने समजाय तेवी भाषा वा परवानी खास काळजी राखी छे. आ सूत्रना पहेला त्रीश अध्ययननुं भाषान्तर आजयी पाँच वर्ष पहेलां तैयार करवामां आव्युं हतुं. त्याएपछी व्यवसाय, विपत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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