Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 73
________________ ३६० अणुओगदाराई अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं, नवमुहाई 'पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ'', दोणीए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ ! गाहा--- माणम्माणप्पमाणजुत्ता', लक्खणवंजणगुणेहि उववेया। उत्तमकुलप्पसूया, उत्तमपुरिसा मुणेयव्वा ॥१॥ होंति पुण अहियपुरिसा, अट्ठसयं अंगुलाण उव्विद्धा। छण्णउइ अहमपुरिसा, चउरुत्तरा' मज्झिमिल्ला उ ॥२॥ हीणा वा अहिया वा, जे खलु सर-सत्त-सारपरिहीणा। ते उत्तमपुरिसाणं, अवसा पेसत्तणमुर्वेति ।।३।। ३११. एएणं अंगलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ, दो पाया विहत्थी, दो विहत्थीओ रयणी, दो रयणीओ कुच्छी, 'दो कुच्छीओ दंडं धणू जुगे नालिया अक्खे मसले", दो धणु सहस्साई गाउयं, चत्तारि गाउयाइं जोयणं । ३६२. एएणं आयंगुलप्पमाणेणं कि पओयणं ? एएणं आयंगलप्पमाणेणं-जे णं जया मणस्सा भवंति तेसि णं तया 'अप्पणो अंगलेणं" अगड-तलाग-दह-नदी-वावी पुक्खरिणी-दीहिया"-गुंजा लियाओ सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ बिलपंति१. पमाणजुत्ते पुरिसे (क)। च एतावन्तः शब्दा: व्याख्याता उपलभ्यन्ते२. पमाणे जुत्ते (ग)। बाबी-पुक्खरिणी - दीहिया - गुजालिया सरा ३. चउत्तरा (क); चउरुत्तर (ख)। सरपंती आराम-उज्जाण-काणण-वण-वणसंड४. अवस्स (क)। वणराई फरिहा-खाइया-चरिया-गोपुर-संघाडग५. मुदिति (क) । तिक-चउक्क-चच्चर-चतुम्मुह-महापह-पहा-सभा६. दो कुच्छीओ धणू (क) । पवा-अलिंद-सरण-लेण-भंड-मत्त-उवकरण-सकड७. आयंगुलेण (ख, म). रह-जाण -जुग्गय-थिल्ली-गिल्ली-सिविया-सद८.४ (क); आयंगुलेणं (ख, ग) । माणी-लोही-लोहकडाहा (च); वावी-पुक्खरिणीहै. अत: 'मत्तोवगरणमाईणि' पर्यन्तं पाठभेदा दीहिया-गुंजालिया सरा सरपंती सरसरपंती उपलभ्यन्ते आराम-उज्जाण-काणण-वण-वणसंड - वणराई आरामुज्जाण - काणण-वण-वणसंड-वणराईओ फरिहा-खाइया-चरिया-गोपुर-संघाडग - तियअगड-तडाग-दह-नई-वावि-पोखरिणी-दीहिय. चउक्क चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहा सभागुजालिया सरा सरपंतीओ सरसरपंतियाओ पवा- अलिंद-सरण - लेण-भंड-मत्त - उबगरण विलपंतीओ देवकुल-सभा-पवा - थूभ - चेइय- सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्ली-थिल्ली - सिवियाखाइय-परिहाओ पागारगट्रालय-चरिय - दार- संदमाणी-लोही-लोहकडाहा (हा); मलधारिगोपूर-संघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर - चउम्मुह- वृत्तो केचिद् शब्दाः व्याख्याताः न सन्ति, तस्य महापह-सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लि - थिल्लि- कारणं वृत्तिकृता स्वयमुपदशितम्-शेषं तु सीयसंदमाणिओ घर-सरण-लेण - आवणासण- यदिह क्वचित्किञ्चिन्न व्याख्यातं तत्सुगमत्वासयण-खंभ-भंड-मत्तोवगरणा लोही-लोहकडाह- दिति मन्तव्यम् (हे)। कडच्छगमाईणि (क); चूणौ हारिभद्रीयवृत्तौ १०. दीहिय (ख, ग)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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