Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१३२
राजप्रश्नीयसूत्र
रायारिहं) पाहुडं उवणेहि, जाई तत्थ रायकज्जाणि य रायकिच्चाणि य रायनीतिओ य रायववहारा य ताइं जियसत्तुणा सद्धिं सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहि त्ति कटु विसज्जिए । ___तए णं से चित्ते सारही पएसिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव (तुटु-चित्तमाणंदिएपीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस-विसप्पमाण-हियए करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु 'एवं देवो तहत्ति' आणाए विणएणं वयणं) पडिसुणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, पएसिस्स रण्णो जाव पडिणिक्खमइ सेयवियं नगरि मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी
खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव पच्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज्जं चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेन्ति, तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ।
तए णं से चित्ते सारही कोडुंबियपुरिसाण अंतिए एयमढे जाव हियए ण्हाए, कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेविज्जविमलवरचिंधपट्टे, गहियाउहपहरणे तं महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेति ।
बहूहिं पुरिसेहि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरेन्जमाणेणं महया भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खित्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ सेयवियं नगरि मझमझेणं णिग्गच्छइ, सुहेहिं वासेहिं पायरासेहिं नाइविकिटेहिं अंतरा वासेहिं वसमाणे-वसमाणे केइयअद्धस्स जणवयस्स मझमझेणं जेणेव कुणालाजणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, सावत्थीए नयरीए मज्झमझेणं अणुपविसइ । जेणेव जियसत्तुस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिण्हह, रहं ठवेति, रहाओ पच्चोरुहइ ।
तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ जेणेव अग्भिंतरिया उवट्ठाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, जियसत्तुं रायं करयलपरिग्गहियं जाव' कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ ।
__तए णं से जियसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पडिच्छइ, चित्तं सारहिं सक्कारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ रायमग्गमोगाढं च से आवासं दलयइ । ___२११– तत्पश्चात् किसी एक समय प्रदेशी राजा ने महार्थ (विशिष्ट प्रयोजनयुक्त) बहुमूल्य, महान् पुरुषों के योग्य, विपुल, राजाओं को देने योग्य प्राभृत (उपहार) सजाया— तैयार किया। सजाकर चित्त सारथी को बुलाया और बुलाकर उससे इस प्रकार कहा
१.
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