Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 211
________________ १७० राजप्रश्नीयसूत्र २४७- तए णं केसी कुमारसमणे पएसीरायं एवं वयासी–जति णं तुमं पएसी ! पहायं कायबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं भिंगारकडुच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरिसे वच्चघरंसि ठिच्चा एवं वदेज्जा-एह ताव सामी ! इह मुहुत्तगं आसयह वा, चिट्ठह वा, निसीयह वा तुयट्टह वा, तस्स णं तुमं पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमद्वं पडिसुणिज्जासि । णो तिणढे समढे । कम्हा णं ? भंते ! असुई असुइ सामंतो । एवामेव पएसी ! तव वि अज्जिया होत्था, इहेव सेयवियाए णयरीए धम्मिया जाव विहरति, सा णं अम्हं वत्तव्वाए सुबहु जाव उववन्ना, तीसे णं अज्जियाए तुमं णत्तुए होत्था इटे० किमंग पुण पासणयाए ? सा णं इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए । चऊहिं ठाणेहिं पएसी! अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाए १. अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिए-गिद्धे-गढिए-अज्झोववण्णे से णं माणसे भोगे नो आढाति, नो परिजाणाति, से णं इच्छिज्ज माणुसं० नो चेव णं संचाएति। २. अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोववण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्नए भवति, दिव्वे पेम्मे संकंते भवति, से णं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाएइ । ३. अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहिं कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोववण्णे, तस्स णं एवं भवइ–इयाणिं गच्छं मुहुत्तं जाव इह गच्छं, अप्पाउया णरा कालधम्मुणा संजुत्ता भवंति, से णं इच्छेज्जा साणुस्सं० णो चेव णं संचाएइ । ४. अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहिं जाव अज्झोववण्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे भवइ, उर्दु पि य णं चत्तारि पंच जोअणसए असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छति, से णं इच्छेज्जा माणुसं० णो चेव णं संचाइज्जा । इच्चेएहिं ठाणेहिं पएसी ! अहुणोववण्णे देवे देवलोएसु इच्छेज्ज माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तं सद्दहाहि णं तुमं पएसी ! जहा—अन्नो जीवो अन्नं सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं । २४७– प्रदेशी राजा का उक्त तर्क सुनकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार पूछा—हे प्रदेशी ! यदि तुम स्नान, बलिकर्म और कौतुक, मंगल, प्रायश्चित्त करके गीली धोती पहन, झारी और धूपदान हाथ में लेकर देवकुल में प्रविष्ट हो रहे होओ और उस समय कोई पुरुष विष्ठागृह (शौचालय) में खड़े होकर यह कहे कि- हे स्वामिन् ! आओ और क्षणमात्र के लिए यहां बैठो, खड़े होओ और लेटो, तो क्या हे प्रदेशी ! एक क्षण के लिए भी तुम उस पुरुष की बात स्वीकार कर लोगे ?

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