Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 241
________________ २०० राजप्रश्नीयसूत्र तब उस विषमिले आहार को खाने से प्रदेशी राजा के शरीर में उत्कट, प्रचुर, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, रौद्र, दुःखद, विकट और दुस्सह वेदना उत्पन्न हुई। विषम पित्तज्वर से सारे शरीर में जलन होने लगी। प्रदेशी का संलेखना-मरण ___ २७८- तए णं से पएसी राया सूरियकताए देवीए अत्ताणं संपलद्धं जाणित्ता सूरियकंताए देवीए मणसावि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, पोसहसालं पमज्जइ, उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, दब्भसंथारगं संथरेइ, दब्भसंथारगं दुरूहइ, पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं अंजलिं मत्थए त्ति कटु एवं वयासी_ नमोऽत्थु णं अरहंताणं जाव' संपत्ताणं । नमोऽत्थु णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मोवदेसगस्स धम्मायरियस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गए, पासउ मे भगवं तत्थ गए इह गयं ति कटु वंदइ नमसइ । पुव्विं पि णं मए केसिस्स कुमारसमणस्स. अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चक्खाए जाव परिग्गहे, तं इयाणिं पि णं तस्सेव भगवतो अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव परिग्गहं, सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसल्लं, अकरणिज्जं जोयं पच्चक्खामि, सलं असणं चउव्विहं पि आहारं जावज्जीवाए पच्चक्खामि । ___जं पि य मे सरीरं इटुं जाव फुसंतु त्ति एवं पि य णं चरिमेहिं ऊसासनिस्सासेहिं वोसिरामि त्ति कटु आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववायसभाए जाव वण्णओ । २७८- तत्पश्चात् प्रदेशी राजा सूर्यकान्ता देवी के इस उत्पात (षड्यन्त्र, धोखे) को जानकर भी उस के प्रति मन में लेशमात्र भी द्वेष-रोष न करते हुए जहां पौषधशाला थी, वहां आया। आकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की, उच्चारप्रस्रवणभूमि (स्थंडिल भूमि) का प्रतिलेखन किया। फिर दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आसीन हुआ। आसीन होकर उसने पूर्व दिशा की ओर मुख कर पर्यंकासन (पद्मासन) से बैठकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस.प्रकार कहा___अरिहंतों यावत् सिद्धगति को प्राप्त भगवन्तों को नमस्कार हो! मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो। यहां स्थित मैं वहां विराजमान भगवान् की वन्दना करता हूं। वहां पर विराजमान वे भगवन् यहां रहकर वन्दना करने वाले मुझे देखें। पहले भी मैंने केशी कुमारश्रमण के समक्ष स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है। अब इस समय भी मैं उन्हीं भगवन्तों की साक्षी से (यावज्जीवन के लिए) सम्पूर्ण प्राणातिपात यावत् समस्त परिग्रह, क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारह पापस्थानों का) प्रत्याख्यान करता हूं। अकरणीय (नहीं करने योग्य जैसे) समस्त कार्यों एवं मन-वचन-काय योग का प्रत्याख्यान करता हूं और जीवनपर्यंत के लिए सभी अशन-पान आदि रूप चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूं। परन्तु मुझे यह शरीर इष्ट—प्रिय रहा है, मैंने यह ध्यान रखा है कि इसमें कोई रोग आदि उत्पन्न न हों, परन्तु अब अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक के लिए इस शरीर का भी परित्याग करता हूं। १. देखें सूत्र संख्या १९९

Loading...

Page Navigation
1 ... 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288