Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 237
________________ राजप्रश्नीयसूत्र २७१– तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा, सूर्यकान्ता आदि रानियों और उस अति विशाल परिषद् को यावत् धर्मकथा सुनाई । १९६ इसके बाद प्रदेशी राजा धर्मदेशना सुन कर और उसे हृदय में धारण करके अपने आसन से उठा एवं केशी कुमारश्रमण को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके सेयविया नगरी की ओर चलने के लिए उद्यत हुआ। २७२— तए णं केसी कुमारसमणे पएसिरायं एवं वदासी— मा णं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि, जहा से वणसंडे इ वा णट्टसाला इ वा इक्खुवाडए इ वा, खलवाडए इ वा । कहं णं भंते ! ? वणसंडे पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति । जया णं वणसंडे नो पत्तिए, नो पुष्फिए, नो फलिए नो हरियगरेरिज्जमाणे णो सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणे चिट्ठइ तया णं जुने झडे परिसडिय पंडुपत्ते सुक्करुक्खे इव मिलायमाणे चिट्ठइ तया णं वणे णो रमणिज्जे भवति । जया णं णट्टसाला वि गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ तया णं णट्टसाला रमणिज्जा भवइ, जया णं नट्टसाला णो गिज्जइ जाव णो रमिज्जइ तया णं णट्टसाला अरमणिज्जा भवति । जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ सिज्जड पिज्जइ दिज्जइ तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ, जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तया इक्खुवाडे अरमणिज्जे भव । जया णं खलवाडे उच्छुब्भइ उडुइज्जइ मलइज्जइ मुणिज्जइ खज्ज पिज्जड़ दिज्जइ तया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति जया णं खलवाडे नो उच्छुब्भइ जाव अरमणिज्जे भवति । सेट्टे पसी ! एवं वुच्चइ मा णं तुमे पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि जहा वणसंडे इ वा । २७२– राजा प्रदेशी को सेयविया नगरी की ओर चलने के लिए उद्यत देखकर केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा— जैसे वनखण्ड अथवा नाट्यशाला अथवा इक्षुवाड (गन्ने का खेत ) अथवा खलवाड (खलिहान) पूर्व में रमणीय होकर पश्चात् अरमणीय हो जाते हैं, उसी प्रकार तुम पहले रमणीय (धार्मिक) होकर बाद में अरमणीय (अधार्मिक) मत जाना। प्रदेशी — भदन्त ! यह कैसे कि वनखण्ड आदि पूर्व में रमणीय (मनोरम, सुन्दर) होकर बाद में अरमणीय हो जाते हैं ? केशी कुमार श्रमण –— प्रदेशी ! वनखण्ड आदि पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय ऐसे हो जाते हैं कि वनखण्ड जब तक हरे-भरे पत्तों, पुष्पों, फलों से सम्पन्न और अतिशय सुहावनी सघन छाया एवं हरियाली से व्याप्त होता है तब तक अपनी शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित होता हुआ रमणीय लगता है। लेकिन वही वनखण्ड पत्तों, फूलों, फलों और नाममात्र की भी हरियाली नहीं रहने से हराभरा, देदीप्यमान न होकर कुरूप, भयावना दिखने लगता है तब सूखे वृक्ष की तरह छाल - पत्तों के जीर्ण-शीर्ण हो जाने, झर जाने, सड़ जाने, पीले और म्लान हो जाने

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