Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 234
________________ प्रदेशी की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण १९३ पहुंचकर उन्होंने तांबे की, चांदी की, सोने की, रत्नों की और हीरों की खानें देखीं एवं इनको जैसे-जैसे बहुमूल्य वस्तुएं मिलती गईं, वैसे-वैसे पहले-पहले के अल्प मूल्य वाले तांबे आदि को छोड़कर अधिक-अधिक मूल्यवाली वस्तुओं को बांधते गये। सभी खानों पर उन्होंने अपने उस दुराग्रही साथी को समझाया किन्तु उसके दुराग्रह को छुड़ा में वे समर्थ नहीं हुए। इसके बाद वे सभी व्यक्ति जहां अपना जनपद- देश था और देश में जहां अपने-अपने नगर थे, वहां आये । वहां आकर उन्होंने हीरों को बेचा। उससे प्राप्त धन से अनेक दास-दासी, गाय, भैंस और भेड़ों को खरीदा, बड़े-बड़े आठ-आठ मंजिल के ऊंचे भवन बनवाये और इसके बाद स्नान, बलिकर्म आदि करके उन श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपरी भागों में बैठकर बजते हुए मृदंग आदि वाद्यों— निन्नादों एवं उत्तम तरुणियों द्वारा की जा रही नृत्य-गान युक्त बत्तीस प्रकार की नाट्य लीलाओं को देखते तथा साथ ही इष्ट शब्द, स्पर्श यावत् (रस, रूप और गंध मूलक मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों के भोगते हुये अपना-अपना समय व्यतीत करने लगे । वह लोहवाहक पुरुष भी लोहभार को लेकर अपने नगर में आया। वहां आकर उस लोहभार के लोहे को बेचा। कितु अल्प मूल्य वाला होने से उसे थोड़ा-सा धन मिला। उस पुरुष ने अपने साथियों को श्रेष्ठ प्रासादों के ऊपर रहते हुए यावत् (भोग-विलास में) अपना समय बिताते हुए देखा। देखकर अपने आपसे इस प्रकार कहने लगा——अरे ! मैं अधन्य, पुण्यहीन, अकृतार्थ, शुभलक्षणों से रहित, श्री - ही से वर्जित, हीनपुण्य चातुर्दशिक (कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को जन्म हुआ), दुरंत - प्रान्त लक्षण वाला कुलक्षणी हूं। यदि उन मित्रों, ज्ञातिजनों और अपने हितैषियों की बात मान लेता तो आज मैं भी इसी तरह श्रेष्ठ प्रासादों में रहता हुआ यावत् अपना समय व्यतीत करता । इसी कारण हे प्रदेशी ! मैंने यह कहा कि यदि तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ोगे तो उस लोहभार को ढोने वाले दुराग्रही की तरह तुम्हें भी पश्चात्ताप करना पड़ेगा। प्रदेश की प्रतिक्रिया एवं श्रावकधर्म-ग्रहण २६८— एत्थ णं से पएसी राया संबुद्धे केसिकुमारसमणं वंदइ जाव एवं वयासी—णो खलु भंते ! अहं पच्छाणुताविए भविस्सामि जहा व से पुरिसे अयभारिए, तं इच्छामि णं देवाप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह । धम्मका जहा चित्तस्स । तहेव गिहिधम्मं पडिवज्जइ जेणेव सेयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । २६८— इस प्रकार समझाये जाने पर यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त कर प्रदेशी राजा ने केशी कुमारश्रमण को वन्दना की यावत् निवेदन किया— भदन्त ! मैं वैसा कुछ नहीं करूंगा जिससे उस लोह भारवाहक पुरुष की तरह मुझे पश्चात्ताप करना पड़े। अतः आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूं। शकुमार श्रमण — देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो, परंतु विलंब मत करो। इसके पश्चात् प्रदेशी की जिज्ञासा - वृत्ति देखकर केशी कुमारश्रमण ने जैसे चित्त सारथी को धर्मोपदेश देकर श्रावकधर्म समझाया था उसी तरह राजा प्रदेशी को भी धर्मकथा सुनाकर गृहिधर्म का विस्तार से विवेचन किया। राजा गृहस्थधर्म स्वीकार करके सेयविया नगरी की ओर चलने को तत्पर हुआ।

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