Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 192
________________ चित्त का प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने का निवेदन चित्त का प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने का निवेदन २३२ - तए णं से चित्ते सारही तेसिं उज्जाणपालगाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव आसणाओ अब्भुट्ठेति, पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पाउयाओ ओमुयइ, एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, अंजलिमउलियग्गहत्थे केसिकुमारसमणाभिमुहे सत्तट्ठ पयाइं अणुगच्छइ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी— नमोऽत्थु णं अरहंताणं जाव' संपत्ताणं नमोऽत्थु णं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे त्ति कट्टु वंदइ नमसइ । उज्जाणपाल विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, पडिविसज्जेइ । कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ एवं वयासी — खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया चाउग्घंटं आसरहं त्व उवट्ठवेह जाव पच्चपिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवट्ठवित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । तए णं से चित्ते सारही कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जांव हियए हाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे जेणेव चाउग्घंटे जाव दुरूहित्ता सकोरंट० महया भडचडगरेणं तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहाए जाव । १५१ २३२— तब वह चित्त सारथी उन उद्यानपालकों से इस संवाद को सुनकर एवं हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट हुआ। चित्त में आनन्दित हुआ, मन में प्रीति हुई । परम सौमनस्य को प्राप्त हुआ । हर्षातिरेक से विकसितहृदय होता हुआ अपने आसन से उठा, पादपीठ से नीचे उतरा, पादुकाएं उतारीं, एकशाटिक उत्तरासंग किया और मुकुलित हस्ताग्रपूर्वक अंजलि करके जिस ओर केशी कुमार श्रमण विराजमान थे, उस ओर सात-आठ डग चला और फिर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगा— अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो यावत् सिद्धगति को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य, मेरे धर्मोपदेशक केशी कुमारश्रमण को नमस्कार हो । उनकी मैं वन्दना करता हूं। वहां विराजमान वे भगवान् यहां विद्यमान मुझे देखें, इस प्रकार कहकर वंदन - नमस्कार किया । इसके पश्चात् उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र, गंध, माला, अलंकारों से सत्कार - सन्मान किया तथा जीविकायोग्य विपुल प्रीतिदान ( पारितोषिक) देकर उन्हें विदा किया । तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनको आज्ञा दी— हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही तुम चार घंटों वाला अश्वरथ जोतकर उपस्थित करो यावत् हमें इसकी सूचना दो। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् शीघ्र ही छत्र एवं ध्वजा - पताकाओं से शोभित रथ को उपस्थित कर आज्ञा वापस लौटाते हैं—–— रथ लाने की सूचना देते हैं। कौटुम्बिक पुरुषों से रथ लाने की बात सुनकर एवं हृदय में धारण कर हृष्ट-तुष्ट यावत् विकसितहृदय होते हुए देखें सूत्र संख्या १९९ १.

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