Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 450
________________ सहस्सार-सामण्णपरियाग सहस्सार [महस्रार] ओ० ५१,१५७,१९२. जी० ११११६,१२३,२६१,६६,१४८,१४६, ३११०३८,१०५२,१०६१,१०६६,१०६८, १०७६,१०५३,१०८५.१०८८ सहस्सारग [सहस्रारक) जी० ३१११११ सहा [सभा] ओ० ३७. जी० ३६४१२ सहिणग [ श्लक्ष्णक ] जी० ३१५६५ सहित सहित ] जी० २।१०५; ३।२८५,६२७ सहिय [संहत ] ओ०१६ सहिय [ सहित] रा०७५. जी० ३८३८१२५ सही सखी] जी० ३१६१३ सहोढ सहोढ] २० ७५४,७५६,७६४ साई साचि ] रा० ६७१ साइज्ज [स्वाद् ] -- साइजामो. ओ० ११७ साइजणया स्वादन] ओ. ३३ साइज्जित्तए (स्वादयितुम् ] ओ० ११७ साइम [ स्वाद्य] ओ० ११७,१२०,१४७,१६२. रा० ६९८,७०४,७१९,७५२,७६५,७७६, ७८७ से ७५६,७६४,७६६,८०२,८०८ साइरेग [सातिरेक] मो० २३,१४५,१८८. रा० १७०,२११,२२२,२२७,२५३. जी० २११३ ३१२५०,३५८,३७४,३७६,३८६, ४१४,६५३,६७५,८८२,८८७,८६४६।३४, ८६,६३,१३४,१६०,१६१,१६५ साउ स्वादु ओ० ६. जी० ३.२७५ सागर [सागर] ओ० २७,४६,७४१५.६६, १६५२२. रा० २४,७६५,८१३. जी० ३३२७७,५६६,८३८१२३ सागरनागरपविभत्ति [सागरनागरप्रविभक्ति] रा०६२ सागरपविभत्ति | सागरप्रविभक्ति] रा० ६२ सागरमह (सागरमह] रा० ६८८,६८६ सागरोवम सागरोपम] ओ० ११४,११७, १४०, १५५,१५७ से १६०,१६२,१६७. रा० २८२. जी० श६६,१३६,१३८,२।७३,७६,८२, ६३,१७,१०७,१०८,११८,१२५,१२७,१२६, १३६ ३.१६२,१६७,४४८,८४१,१०४६, १०४७,१०४६ से १०५३,१०५५,११३१, ११३७,४|४,९,१५,१६:५१६,१०,१६२८, २६; ६.२.११७१३,१६, ८.३; ६२ से ४, ३१,३४,६८,७२,८६,६३,१०२,१०६,१२३, १२८,१३२,१३४,१६०,१६१,१६५,१७२, १७६,१८६ से १६१,१६३,१६८,१६६,२०३, २०६,२१०,२१७,२२४,२२८,२३४,२४४, २६०,२६६,२८० सागार [साकार] ओ० १८२,१६५।११. जी० २३२,८७,३३१०६,१५४,१११०% ६।३६,३७ साणुस्कोसिया [ सानुक्रोशता] ओ०७३ सातासोक्ख सातसौख्य] जी० ३.१११७ साति [साचि] जी० ११११६ साति स्वाति] जी० ३३१००७ सातिरेग [सातिरेक] रा० ८०५. जी० ११७४; २१४३,४४,४७,८२,१२५,१२८, ३१२४७, २५६,३८१,६४२,६७२,६७६,६८६,६०७, १०३४,१०३६,११३७, ४१६,१५,५१६, २६; ६३११;७१६,८१३; ६४३,३१,६८,७२, १०२,१०६,१२३,१२८,१३२,१६८,१६६, २०६,२१७,२४४,२६०,२८० सादीय [सादिक ] ओ० १८३,१८४,१६५. जी० ६।२४,२५,३१,३३,३४,८२,११०,१२५, १६३,१६२,१६५,२०१,२०२,२०५,२०६, २१५.२१६,२२७,२३०,२४०,२४६,२६१, २६५,२७६,२८५ साभाविय स्वाभाविक रा० २७९,२८०. जी० ३१४४५,४४६ साम सामन् ] रा० ६७५ सामंत [मामन्त] रा० ७५३ सामग्णपरियाग [श्रामयपर्याय ! ओ० ६५,१५५, १५६,१६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470