Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 458
________________ सुपतिट्ठिय-सुरभि सुपतिट्ठिय [सुप्रतिष्ठित] रा० ५२,५६,२३१, सुभद्दा | सुभद्रा] ओ० ५५,५८,६२,७०,७१,८१. २४७,७५४,७५६,७६०,७६२,७६४. जो० ३१६६६ जी० ३४५६६,६७२ सुभाविय [सुभावित] ओ० ७९ से ८१ सुपरक्कत सुपराकान्त रा० १८५,१८७. सुभासिय [सुभाषित] ओ० ७६ से ८१ जी० ३१२१७,२६७,२६८,३५८,५७६ सुभिक्ख ! सुभिक्ष ओ० १,१४. रा० ६७१ सुपरिणिट्ठिय [ सुपरिनिष्ठित } ओ० ६७ सुभूम [नुभूम जी० ३।११७ सुपस्सा [सुपश्या | रा० ८१७ समझ (मुमध्य] रा० १३३. जी० ३१३०३ सुपिणद्ध । मुपिनद्ध] जी० ३६२८५ सुमण | सुमनस् ] जी० ३।६२५,६३४ सुप्पइट्टिय [सुप्रतिष्ठित] ओ० १६ सुमणदाम [मुमनोदामन् | रा० २७६,२८५. सुप्पडियाणंद [सुप्रत्यानन्द ] ओ० १६१ जी० ३१४४५,४५१ सुप्पबुद्धा सुप्रबुद्धा] जी० ३।६६६ सुमणभद्द [ समनोभद्र | जी० ३:६२८ सुप्पभ [सुप्रभ] जी० ३१८७५ सुमणा | सुमनसी | जी० ३१६६६,६२० सुप्पभा [सुप्रभा] ओ० १९४ सुमहग्ध [सुमहाय॑ ] ओ० ६३ सम्पमाण सुप्रमाण] ओ० १३,१६. जी ० ३१५६६, सुय [ शुक] ओ० ६. जी० ३१२७५ सुय [श्रुत] ओ० ५२. रा० १६,६८७,६८६ ५६७ सुप्पसारिय [सुप्रसारित ] ओ० ५,८. जी० ३१२७४ सुयअण्णाणि [श्रुताज्ञानिन् ] जी० ११३०,८७,९६; ३१०४,११०७; ९।१६७,२०२,२०६,२०८ सुप्पसूय [सुप्रसूत] आ० १४. रा० ६७१ सुयणाण [श्रुतज्ञान] ओ० ४०. रा० ७३९,७४२, सुफास [सुस्पर्श ] जी० ३।६८१,६८७ सुबद्ध । सुबद्ध] ओ० १६. रा० १७४. सुयणाणविणय [श्रुतज्ञानविनय ] ओ० ४० जी० ३१२८६,५६६,५६७ सुयणाणि {श्रुतज्ञानिन् ] ओ० २४. जी० ११८७, सुबहु [सुबहु ] रा० २६६,२६८,७५० से ७५३, ६६,११६,१३३; ३।१०४,११०७६।१५६, ७७४. जी. ३१४३२,५३४,५४१ १६०,१६५.१६६,१६७,१६८,२०४,२०८ सुभिगंध [सुगन्ध ] जी० ११५,३६,३७,५०; सुरदेवया [श्रुतदेवता] रा० ८१७ ३१६७६,६५५ सुयनाणि श्रुतज्ञानिन् ] जी० १११३३ सुम्भिगवत्त सुगन्धत्व] जी० ३६८५ सुयपिच्छ शुकपिच्छ] रा० २६. जी० ३३२७६ सुन्भिसद्द [सुशब्द] जी. ३१६७७,६८३ सुयमुह [शुकमुख ] ओ० २२. रा० ७७७,७७८, सुभिसद्दत्त [सु शब्दत्व] जी० ३६६८३ सुभ [शुभ ] ओ० ५१,११६,१५६. रा० १८५, सुरइ [सुरति ] रा० ७६,१७३ १८७,६७० जी० ११३४, ३।२१७,२६७, सुरइय [सुरचित] ओ० ४६ २६.८,३५८,५७६,६७२,१०६०,१०६६ सुरति [सुरति] जी० ३।२८५ सुभग सुभग ओ० १२,१५०. रा० २३,१७४, सुरभि {सुरभि] ओ० २,७,८,१०,४६,५५. १९७,२७६,२८८,८११. जी० ३३११८,११९, रा० ३२,१३१,१४७,१४८,१५६,२२८,२८०, २५६,२८६,२६१ २८१,२८५,२६१.३५१.६७०. जी० ३३२२, सुभचक्खुकंत [शुभ चक्षु कान्त ] जी० ३१६३३ २७६,३०१,३३२,३७२,३८७,४४६,४४७, सुभद्द [सुभद्र] जी० ३१६२८ ४५१,५१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470