Book Title: Agam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 454
________________ सिय-सीओसिणवेदणा सिय [स्यात् ] जी० ११४६,७३,८२; ३१५७,५८, २७० सियरत सितरक्त] ओ० ४७ सिया [स्यात् ] जी० ३८४,८५,११८,१६७, २७८ से २८५,६०१,६०२,८६०,८६६,८७२ से ८७८,६८२,१०८५,१०८६ सियाल [शृगाल ] जी० ३१६२० सिर शिरस् ] ओ० ५२,७१. रा० ६१,७६,६८७ से ६८९ सिरय ! शिरोज] ओ० १६,५१. रा० १३३. ___ जी० ३१३०३,५६६,५६७ सिरय | शिरस्क | ओ० ६३,६५ सिरसावत्त [शिरसावतं] ओ० २०,२१,५३,५४, ५६,६२,११७. रा०८,१०,१२,१४,१८,४६, ७२,७४,११८,२७६,२७६,२८२,२६२.६५५, ६८१,६८३,६८६,७०७,७०८,७१३,७१४, ७२३,७६६. जी. ३१४४२,४४५,४४८,४५७, जी० ३१२८४,३८८,५८३ सिरीसव सरीसृप] रा०७१८. जी. ३१७२१ सिरोसिव सरीसृप रा० ७०३ सिरोवेदणा [शिरोवेदना] जी० ३।६२८ सिलप्पवालमय [शिलाप्रवालमय रा० २५४. सिला [शिला मो० १६,२३,४७. रा० २७, ६६५,७५५,७५७. जी० ३३२८०,५९६,६०८ सिलातल [शिलातल] जी० ३३५६६ सिलायल [शिलातल] ओ० १६ सिलिष सिलिन्ध्र ओ०४७ सिलेस [श्लेष] जी० ११७२१५ सिलोय श्लिोक ओ० १४६. रा० ८०६ सिव [शिव] ओ० १४,१६,२१,५४. रा०८, २९२,६७१. जी० ३।४५७ सिवग [शिवक] जी० ३।७४० सिवमह {शिवमह] रा० ६८८. जी० ३६१२ सिवय [शिवक] जी० ३१७३४,७४१ सिवा {शिवा] जी० ३।६२०११,९२२ सिविया ! शिविका] जी० ३।७४१ सिविया [शिविका] ओ० ७,८,१०. ०० ६८७ से ६८६. जी० ३.२८५ सिस्स [शिष्य ] जी० ३१६१० सिस्तिरिली [दे०] जी० ११७३ सिहंडि [शिखण्डिन्] ओ०६४ सिहर [शिखर] ओ० ५. रा० ५२,५६,१३७, २३१,२४७. जी० ३.२७४,३०७,३७३ सिहरि [शिखरिन्] रा० २७६. जी. ३१२२७, ४४५,७६५ सोउंढी दे०] जी० ११७३ सीओदा [शीतोदा] जी० ३१५६८,७०८ सीओभास [शीतावभास] ओ० ४. रा० १७०, १७३. जी. ३२७३ सोओया [शीतोदा] जी० ३।४४५ सीओसिणवेदणा [शीतोष्णवेदना] जी० ३।११२, ११३,११४ सिरिकता [श्रीकान्ता] जी० ३३६८८ सिरिचंदा [श्रीचन्द्रा] जी० ३१६८८ सिरिणिलया [श्रीनिलया] जी० ३।६८८ सिरिदाम [श्रीदामन् ] जी० ३४५६७ सिरिधर [श्रीधर] जी० ३८५४ सिरिप्पम श्रीप्रभ] जी० ३।८५४ सिरिमहिया [श्रीमहिता] जी० ३१६८८ सिरिली दे० श्रीली] जी० ११७३ सिरिवच्छ [श्रीवत्स ] ओ० १२,१६,५१,६४. रा० २१,४६,२५४,२६१. जी० ३।२८६, ३४७,४१५,५६६१ सिरी [श्री रा०४०,१३२,१३५.२३६,७३२, ७३७,७७४,७८२. जी० ३१२६५,३०२,३०५, ३१३,३६८,५८०,५८१,५६१ सिरीस [शिरीष] ओ० ६,१०. रा० ३१. १. श्रीवृक्षणाङ्कितं- लाञ्छितं वक्षो येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छितवक्षसः (व० पत्र २७१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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