Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Part 02
Author(s): Abhaydevsuri, Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 568
________________ स्थानाङ्गसूत्रटीकायामुद्धृतानां साक्षिपाठानां सूचिः १५३ गाथा पृष्ठाङ्कः | गाथा पृष्ठाङ्क: गुणवंत जतो वणिया पूइंतऽन्ने ..... मोहनीयक्षयं प्रति प्रस्थिता:..... व्यवहारभा० २५४४] । ५६६ तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ उप्पन्ननाणा जह.....व्यवहारभा० २५७१] ५६६/ द्विविधाः कुशीला: प्रतिसेवन-..... भारेण वेदणा वा हिंडते तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७६ [व्यवहारभा० २५७४] ५६६ | सम्यगाराधनविपरीता प्रतिगता..... आइयणछड्डणाई.....[व्यवहारभा० २५७६] ५६६/ [उत्तरा० चू०] । ५७७ जेण कुलं आयत्तं तं .....[ ] ५६७ होइ पुलाओ दुविहो .....[उत्तरा०भा० २] ५७७ तब्भावुओगेणं .....[व्यवहारभा० २६९४] ५६७/ नाणे दंसण चरणे .....[उत्तरा०भा० ३] ५७७ जइ वि य निग्गयभावो ..... लिंगपुलाओ अन्नं .....[उत्तरा०भा० ४] ५७७ [व्यवहारभा० २६९५] ५६७/ सरीरे उवकरणे वा.....[उत्तरा०भा० ५] ५७७ वीसुं वसओ दप्पा गणि. आभोगमणाभोगे .....[उत्तरा०भा० ६] ५७७ व्यवहारभा० २६९६] ५६७ आभोगे जाणतो..... [उत्तरा०भा० ७] ५७७ विजाणं परिवाडिं .....[व्यवहारभा० २६९७]५६७/ अच्छि मुह मज्जमाणो.... उत्तरा०भा० ८] ५७७ कम्माई नूण घणचिक्कणाई.....[ ] ५६८/ नाणे दंसण चरणे..... [उत्तरा०भा० ९] ५७७ उदयखयखओवसमोवसम-..... [ ] ५६९ | | नाणादी उवजीवइ .....[उत्तरा०भा० १०] ५७८ पंचत्थिकायमइयं .....[ध्यानश० ५३] ५७० | एमेव कसायम्मी .....[उत्तरा०भा० ११] ५७८ इंदो जीवो सव्वोवलद्धि-..... एमेव दंसणतवे .....[उत्तरा०भा० १२] ५७८ विशेषाव० २९९३] ५७२] पढमा १ पढमे २ चरम ३ ..... तन्नामादि चउद्धा.....[विशेषाव० २९९४] ५७२ _[उत्तरा०भा० १४] पुर्फ कलंबुयाए ..... [विशेषाव० २९९५] ५७३ | धारणया उवभोगो परिहरणा ..... विसयग्गहणसमत्थं ..... [विशेषाव० २९९६]५७३ | [बृहत्कल्प० २३६७, २३७२] ५७८ लद्धवओगा भाविंदियं .... जंगमजायं जंगिय.....[बृहत्कल्प० ३६६१] ५७८ [विशेषाव० २९९७] ५७३ पट्ट सुवन्ने मलये अंसुय जो सविसयवावारो सो ... [बृहत्कल्प० ३६६२] ५७८ [विशेषाव० २९९८] ५७३ | अयसी वंसीमाई.....[बृहत्कल्प० ३६६३] ५७९ एगिदियादिभेदा पडुच्च ..... कप्पासिया उ दोन्नी ..... विशेषाव० २९९९] ५७३| बृहत्कल्प० ३६६४] जं किर बउलाईणं दीसइ ..... | कप्पासियस्स असई ..... विशेषाव० ३०००] ५७३ (बृहत्कल्प० ३६६८] ५७९ जिनप्रणीतादागमात् सदैवा-..... | हरइ रयं जीवाणं बज्झं ..... [ ] ५७९ [तत्त्वार्थभा० सिद्ध० ९।४८] ५७५ / पाउंछणयं दुविहं .....(निशीथभा० ८१९] ५७९ ५७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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