Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Churni
Author(s): Jindasgani Mahattar
Publisher: Jindas Mahattar
View full book text
________________
श्रीसूत्रकृङ्गिचूर्णिः
। १४ ।।
परिणामकरणं, दव्वकरणं गतं । इदाणिं खेत्तकरणं-'ण विणा आगासेणं' गाथा | १ | यत्किचिदिति उत्क्षेपणापक्षेपणादि घटादिकरणादि वा न क्षेत्र मंतरेण क्रियते, क्षेत्रं- आकाशं, तस्स करणं नत्थि, तहावि वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणं, सालिकरणं जहा वा साधूहि अच्छमाणेहिं खेतीको गामो नगरं वा, जंमि वा खेत्ते करणं कीरति भणिजति वा, कालकरणंति 'कालो जो जाव|तियो' गाथा | १० | जावता कालेणं क्रियते, यस्मि वा काले क्रियते, एवं ओहेण, णामओ पुण इसे इकारस करणे (१०-११-१२) चित्रं च चालवं चेव, कोलवं थीविलोयणं । गराइ वणिगं विट्ठी, सुद्धपडिवए णिसादीया । पक्खतिधयो दुगुणिआ जोण्हादौ सोधये पण पुणका | सतहिए देवसियं तं चिय स्वाहियं रचि || १ || 'सुचराष्ट दिवैकरपूर्ण दिवाकृतिराम दिवादरभूत दिवा' एसु विट्ठी, सुद्धी पंडिवयरति दिवसस य पंचमदुमी रतिं । दिवसस्स बारिसी पोण्णिमाए रतिं बवं होंति ॥ १॥ बहुलचउत्थीऍ दिवा बहुलस्स य सचमी हवति रतिं । एक्कारसिं च बहुले दिवा ववं होति करणं तु ।। २ ।। सउणि चतुष्पय णागं कित्थुगं च चतुरो धुवा करणा । किण्दच उदसिरति सउणी सेसं तियं कमसो ॥ ३ ॥ कालकरणं गतं । इदाणिं भावकरणं - भावस्स भावेण भावे चा करणं, तत्थ निज्जुत्तिगाथा-भावे पयोगवीसस पयोगसा मूल उत्तरं चेव । उत्तरकमसुतजोवणवण्णादी भोयणादीसु ॥ १ ॥ भावकरणं दुविधं - पयोगसा वीससा य, पयोगकरणं दुविधं मूलपयोगकरणं उत्तरपयोगकरणं च, मूलपयोगकरणं पंच शरीराणि, ताणि पुण उदइयभावणिफण्णाणि, का तर्हि भावणा ?, उदइयो हि भावो दुविधो-जीवोदय अजीवोदइओ य, तत्थ जीवोदइओ पंचण्हं सरीराणं अण्णतरेणोदितो जीवः स तथाभूत इति जीवोदय भावो, अथ पुण जीवोदयोदितानि शरीरारंभकाणि द्रव्याणि तथा समुदिताणि तत्थ शरीरे भवन्तीत्यर्थः, अजीवोदयिको भावः, यथा च तत्र द्रव्यकरणोपदिष्टं दव्वेंदियाई विसओसधादीहिं तथेहापि तेषु
क्षेत्रादि करणानि
॥ १४ ॥

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 467