Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha Author(s): Narendra Jain Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 4
________________ आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्दव्यसंग्रह प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। सामान्य-विशेष-उभयधर्मात्मक है। १ सामान्य अंश, २ विशेष अंश । १. सामान्य अंश-वस्तु का अन्तरंग परमार्थस्वरूप होता है। वह अपरिणमनशील, ध्रुव, एकरूप, नित्य शुद्ध होता है। इसीको स्वभावगुण-लक्षण कहते हैं। सामान्य अंश यह पारिणामिकभाव रूप होता है। उसका अवलंबन लेकर ही पर्याय में वस्तु का परिणमन स्वभाव-निर्मल परिणमन सुरू होता है। यही सब अध्यात्म ग्रन्थों का सार संक्षेप है । निश्चयनय का विषय यह ध्रुव सामान्य अंश है। यद्यपि सामान्य यह एक वस्तु का अंश है तथापि वह विशेष की तरह अंशरूप नहीं है । अंशज्ञानरूप नहीं है। अंशी के वस्तु के पूर्ण ज्ञानरूप है। व्यापक है। यह सामान्य अंश नित्य विद्यमान रहता है । शुद्ध होता है। उस शुद्ध का आश्रय लेने से शुद्ध पर्याय प्रकट होती है। २. विशेष अंश-वस्तु का तावत्काल धारण किया हुआ बाह्य रूप है। क्षणिक है, परिणमन-शील है । अनेक रूप होता है । उसके दो भेद हैं १ स्वभावविशेष, २ विभावविशेष । १ वस्तु का जो परिणमन वस्तु के ध्रुव सामान्य स्वभाव के आश्रय से होता है वह स्वभाव परिणमन शुद्ध परिणमन है। २ जो परिणमन ध्रुवसामान्य का भान न होने से अनादि परम्परागत बाह्य विकार का अवलंबन लेने से प्रगट होता है वह विभाव-अशुद्ध परिणमन है। ___ इस अशुद्धपरिणमन में केवल विकार ही नहीं है। क्योंकि विकार तो अवस्तु है। उसका मूल वस्तु नहीं है । अनादि विकार ही उसका मूल है । विकार से ही विकार आता है। विकार का आश्रय लेने से विकार आता है। तथापि उस विकार के साथ वस्तु का ध्रुवसामान्य अंश विद्यमान रहता है इसलिए उसको अशुद्ध कहते हैं। मिश्रण में दो अंश होते हैं। अन्तरंग में ध्रुव सामान्य अंश और बहिरंग पर्याय में अशुद्ध विकार अंश रहता है । इसलिए अशुद्ध परिणमन रहते हुए भी जीव अपने में नित्य ध्रुव विद्यमान रहने चाले शुद्ध सामान्य अंश का योग्य काललब्धिवश अपने नियत पुरुषार्थबल से भाव करे, अनुभव लेवे तो उसका अशुद्ध परिणमन बंद होकर, मिटकर, सर्वथा नष्ट होकर, शुद्ध परिणमन शुरू होता है । रागादि विकाररूप अशुद्धता वास्तव में जीव के अज्ञान का, मिथ्या कल्पना का कल्पनाजाल है । भ्रम है। अवस्तु है । वस्तुभत नहीं है । वह विकार मूलवस्तुस्वभाव में नहीं और वस्तु के निर्मल परिणमन में भी उसका सर्वथा अभाव है। सर्वथा नास्ति है। केवल अंतराल में वह अपना क्षणिक संयोगीरूप बतला कर जीव को भ्रम में डालता है। जीव उसको वस्तु न होकर भी अज्ञान से वस्तु समझता है । उसके पीछे लगता है। उसमें अपना सारा जीवन बरबाद करता है तो भी उसको होश नहीं हैं। वह मूर्छित होकर उसीमें मस्त होकर नींद लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13