Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha Author(s): Narendra Jain Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 9
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ २. द्रव्यसंवर-भावसंवर के निमित्त से नवीन कर्मों का आस्रव बंद होना वह द्रव्यसंवर है। १. भावनिर्जरा-आत्मा के जिन परिणामों से पूर्वबद्ध कर्म फल न देते हुए निकल जाते हैं उन परिणामों को भावनिर्जरा कहते हैं। २. द्रव्यनिर्जरा-भावनिर्जरा के निमित्त से जो पूर्वबद्ध कर्मफल न देते हुए झरना वह द्रव्यनिर्जरा है। १. भावमोक्ष-आत्मा के जिन परिणामों के आश्रय से सब कर्मों का क्षय होता है उन परिणामों को भावमोक्ष कहते हैं। २. द्रव्यमोक्ष-भावमोक्ष के निमित्त से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना द्रव्यमोक्ष है। सात तत्त्वों में पुण्य-पाप का आस्रव-बंधतत्त्व में अंतर्भाव किया है । उनका विशेष वर्णन करने के लिये उनको अलग वर्णन करके ९ पदार्थ कहे गये हैं। १. भाव पुण्य-भाव पाप-जीव के जो शुभ अशुभ भाव उनको भावपुण्य भाव पाप कहते है। २. द्रव्य पुण्य पाप-भाव पुण्य पापके निमित्त से जो पुण्य पाप रूप द्रव्य कर्म आते हैं वह द्रव्य पुण्य-पाप तत्त्व है। १. द्रव्य पुण्य प्रकृति साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र, पुण्य प्रकृति है। २. द्रव्य पाप प्रकृति-असाता वेदनीय, अशुभायु, अशुभ नाम, नीच गोत्र तथा ४ घातिकर्मों की प्रकृति ये सब पाप प्रकृति है। इस अधिकार में संस्कृत टीका में संसार भावना में पंच परावर्तन का स्वरूप तथा लोकानुप्रेक्षा में अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक का विशेष वर्णन संग्रहरूप से किया है । विषय कषाय प्रवृत्तिरूप अशुभोपयोग भाव से पापकर्मों का आस्रव होता है इसलिये उनको तो सर्वथा हेय कहा है । देव-शास्त्र-गुरु भक्तिरूप शुभ उपयोग भाव, यद्यपि अशुभ भोग से बचने के निमित्त तावत्काल अवलंबन करने योग्य कहे हैं तथापि झानी वह शुभ उपयोग पुण्य बंधका ही कारण मानता है। मोक्ष का कारण नहीं मानता है । मोक्ष का कारण शुद्ध उपयोग को ही मान कर उसीको आत्म स्वभाव मानता है। भावना शुद्धोपयोग की ही करता है। उसीको उपादेय मानता है। उसमें स्थिर होने में असमर्थ होने से तावत्काल उसको शुभ भाव आता है । लेकिन उस शुभ भाव से पुण्यफल की प्राप्ति हो ऐसा निदान नहीं करता है। शुभ भाव से प्राप्त जो पुण्यफल उसमें आसक्त नहीं होता। भेद ज्ञान बल के सामर्थ्य से वह योग्य काललब्धि आने पर संपूर्ण शुभ अशुभ योग से निवृत्त होकर शुद्धोपयोग के बल से मोक्ष को प्राप्त करता है। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी तीव्र निदान बांधने से पुण्यफल को भोगकर रावणादिक की तरह नरक में जाते हैं। ७. तृतीय अधिकार का संक्षिप्त वर्णन ___ इस अधिकार में तीर्थप्रवृत्ति निमित्त के प्रयोजन से अशुभयोग से निवृत्ति तथा शुभयोग प्रवृत्तिरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का वर्णन कर, निश्चय से संपूर्ण क्रिया निवृत्तिरूप निश्चय रत्नत्रय यही मोक्ष का साक्षात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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