Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 12
________________ आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्रव्यसंग्रह २९३ २. ध्यान के प्रकार-ध्यान के ४ प्रकार हैं । १ आर्तध्यान, २ रौद्रध्यान, ३ धर्मध्यान, ४ शुक्लध्यान । उनमें से पहले दो ध्यान संसार बन्धन का कारण होने से हेय हैं । धर्मध्यान-शुक्लध्यान मोक्ष का कारण होने से उपादेय हैं। ध्यान का प्रबन्धक राग-द्वेष-मोह है। प्रश्न-राग-द्वेष-मोह किसका कार्य है । क्या जीव का कार्य है ? या कर्म का कार्य हैं ? उत्तर-राग, द्वेष, मोह न केवल जीव वस्तु का कार्य है, तथा न केवल कर्मरूप पुद्गल वस्तु का कार्य है। किंतु दोनों के संयोग का यह कार्य है। १. एकदेश शुद्ध निश्चयनय से राग पर भाव है, अनात्मभाव है। कर्म के आश्रय से होता है । - इसलिए उसको कर्मजनित कहा जाता है। २. अशुद्ध निश्चयनय से वह आत्मा का ही अपराध है इसलिए वह आत्मजनित कहा जाता है। ३. शुद्ध निश्चयनय से राग न आत्मा का कार्य है, न कर्म का भी कार्य है। वह स्वयं मूल वस्तु से उत्पन्न न होने से अवस्तुभूत हे और अवस्तुभत राग का ही वह कार्य होने से अवस्तुभत है। तथापि रागी जीव उसको वस्तुभूत मानकर उनसे मोहित होता है। राग-द्वेष-मोह से दुर्ध्यान, आर्तरौद्रध्यान होते हैं अतएव वह हेय है। राग, द्वेष, मोह का अभावरूप धर्म-शुक्लध्यान उपादेय है। ३. ध्यान के मंत्र-पंच परमेष्ठीवाचक–णमोकार मंत्र, या बीजाक्षरी ॐ कार रूप हींकार रूप एकाक्षरी मंत्र से लेकर अनेक प्रकार के मंत्रों का शास्त्र में विधान किया है। उन मंत्रों से ध्यान करना चाहिए। ४. ध्यान किसका करना—निश्चयनय से ध्यान करने योग्य आत्मा ही है। आत्मा के ध्यान से ही आत्मसिद्धि होती है। तथापि आत्मा के प्रतिबिंब अरिहंत सिद्ध परमात्मा है। तथा आत्मा के साधक आचार्य-उपाध्याय और साधु परमेष्ठी हैं। इसलिये प्राथमिक अवस्था में पंचमपरमेष्ठी के ध्यान का ही उपदेश दिया गया है। ध्यान का अंतिम साध्य आत्मसिद्धि है इसलिये आत्मगुणों का ध्यान, आत्मस्वभाव की चर्चा, आत्मा के ४७ शक्ति तत्त्वों का अभ्यास-पठन-पाठन-मनन, चितवन, अनुभवन ये सब ध्यान करने के विषय हैं। ५. ध्यान का फल--ध्यान के सिद्धि के लिये शरीर की चेष्टा (क्रिया व्यवहार ) करना बंद करो, बचन की क्रिया अन्तर्जल्प-बहिर्जल्प बंद करो, मन की चेष्टा बंद करो, सब संकल्प विकल्पों का त्याग करो। जिससे आत्मा आत्मा में स्थिर वृत्ति धारण करे। आत्मा का आत्मा में रमण होना ही सच्चा ध्यान है और वही ध्यान का फल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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