Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
( दृष्टान्तेन स्थिरा मतिः ) दृष्टान्त, चरित्र पठन-पाठन करने से धर्म में बुद्धि स्थिर - दृढ होती है । सम्यग्दर्शन होने पर ही जो दुरभिनिवेश पूर्वक ज्ञान और चारित्र मिथ्या या वही दुरभिनिवेश रहित होने से सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहा जाता है । ज्ञान - दर्शन - चारित्र इन तीनों की एकता - अविनाभाव युगपत् रहता है । वे तीनों यदि मिथ्या दर्शन से सहित हो तो तीनों मिथ्या हैं और यदि सम्यग्दर्शन से सहित हो तो तीनों सम्यक् हैं ।
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आचार्य कुंदकुंददेव ने भी अष्टपाहुड में चारित्र के दो भेद किये हैं । १ सम्यक्त्वचरण, २ चारित्रचरण |
बृहद्रव्यसंग्रह में भी शुद्धोपयोग के दो भेद किये हैं । १ भावनारूप, २ उपयोगरूप ।
१. भावनारूप शुद्धोपयोग ही सम्यक्त्वचरण चारित्र या लब्धिरूप स्वरूपाचरण चारित्र सम्यक्त्व का अविनाभावि होने से गुणस्थान ४ से शुरू होता है इसलिये निश्चय मोक्ष मार्ग का प्रारंभ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही होता है ।
उपयोगरूप शुद्धोपयोगरूप निश्चय चारित्र का प्रारंभ गुणस्थान ७ से होकर पूर्णता गुणस्थान १४ अंत समय में होती है । गुणस्थान १४ के अंत समय की रत्नत्रय की पूर्णता व्यवहार से कारण मोक्षमार्ग कहलाती है और उत्तर समय की सिद्ध अवस्था मोक्षकार्य कहलाती है । पूर्वपर्याय उपादान और उत्तर पर्याय उपादेय होने से पूर्वोत्तर समय में कार्य-कारणभाव भेददृष्टि से व्यवहारनय से कहा जाता है । वास्तव में अभेद दृष्टि से निश्चय से कार्य-कारण एक ही समय में होते हैं ।
न्यायशास्त्र में ' कार्योत्पादः क्षयो हेतोः '
कारण का क्षय ही कार्य का उत्पाद है । कारण का क्षय ही कार्य का कारण है वही कार्य है । कार्य-कारण अभेद होने से एक समय में ही होते हैं ।
ज्ञान के दृढ निर्णय को ही श्रद्धा या सम्यग्दर्शन कहते हैं । ज्ञान की ज्ञान में वृत्ति, आत्मा का आत्मा में रमण चारित्र है । इसलिये ज्ञानमात्र आत्मा ही मोक्षमार्ग है और आत्मा ही साक्षात् मोक्ष है ।
रत्नत्रय धर्म की सिद्धि या आत्मा की सिद्धि ध्यान से होती है । ध्यान की सिद्धि के लिये ध्याता कैसा होना चाहिये, ध्यान किस प्रकार से करना चाहिये, और ध्यान किसका करना चाहिये इसका विवरण इस ग्रंथ में किया है । ध्यान से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । इसलिये ध्यान का अभ्यास करने की प्रेरणा की है।
१. ध्याता का लक्षण - ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त की स्थिरता आवश्यक है । चित्त की स्थिरता के लिए चित्त की अस्थिरता का कारण जो राग, द्वेष, मोह उसका त्याग आवश्यक है । वही ध्याता ध्यान की सिद्धि कर सकता है ।
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