Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 10
________________ आचार्य श्रीमान् नेमिचंद्र व बृहद्रव्यसंग्रह २९१ मार्ग है ऐसा बतलाया है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र यह आत्मा का स्वभाव है। इनसे युक्त आत्मा ही साक्षात् मोक्षमार्ग है और आत्मा ही साक्षात् मोक्षस्वरूप है। जो सिद्ध अवस्था में अनंतज्ञानादि गुणस्वरूप से आत्मा प्रगट होता है उतना ही स्वतः सिद्ध मूल आत्मतत्त्व है। शेष जो उपाधि आगन्तुक थी वह सर्वथा नष्ट हो गई । जो मूल ध्रुव आत्मतत्त्व था वही शेष रह गया इसलिये आत्मा ही साक्षात् सिद्ध है । आत्मा के आश्रय से ही मोक्ष होता है । इसलिये मोक्षमार्ग भी आत्मा ही है । सम्यग्दर्शन सहित व्रत-चारित्ररूप जो भी शुभ प्रवृत्ति मार्ग है वह सब आत्मसिद्धि के अभिप्राय से निश्चय मोक्षमार्ग की बडी भावना से युक्त होने से व्यवहार मार्ग को भी परंपरा से मोक्षमार्ग कहा है। वास्तव में व्रत–चारित्ररूप शुभ प्रवृत्ति साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है, वह तो पुण्यबंध का ही कारण है परंतु उसमें पुण्यफल की स्वर्गसुख की इच्छा न होने से वह पुण्यक्रिया निदानपूर्वक न होने से अंत में उस शुभक्रिया प्रवृत्ति से भी निवृत्त होकर आत्मा में अविचल स्थिरवृत्ति होता है। उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। ___ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति संपूर्ण क्रिया निवृत्ति से ही निश्चय मोक्षमार्ग से ही होती है, शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहार मार्ग से नहीं इसको सम्यक् अनेकांत कहते हैं। दोनों से मोक्षप्राप्ति मानना व्यभिचारी मिथ्या अनेकांत है। अनेकांताभास है। संपूर्ण क्रिया से निवृत्त होकर आत्मा में स्थिरवत्ति रखना यही निश्चय सम्यक्चारित्र है, वही साक्षात् मोक्षमार्ग है। वही साक्षात् मोक्ष है । अभेद नय से मोक्ष मार्ग और मोक्ष, कारण और कार्य एक अभेद आत्मा ही है। विवक्षावश प्रयोजन से उसका कथन व्यवहार नय से दो प्रकार से या तीन प्रकार से विविध रूप से किया जाता है । तथापि निश्चय से मार्ग एक ही होता है। मोक्षमार्ग की प्रथम सीढी सम्यग्दर्शन कही है। गुणस्थान ४ से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता रूप मोक्षमार्ग का प्रारंभ शुरू होता है। गुणस्थान ४ में यद्यपि शुभ प्रवृत्ति या अशुभ निवृत्ति रूप व्रत-चारित्र उपयोग रूप से न होने से उसको अविरत कहा है तथापि संपूर्ण क्रिया निवृत्ति रूप शुद्धोपयोग की भावना निरन्तर जागृत रहती है इसलिये वहां भी भावना रूप लब्धिरूप स्वरूपाचरण चारित्र सम्यग्दर्शन का अविनाभावि होने से अवश्य रहता है इसलिये मोक्षमार्ग का वास्तविक प्रारंभ गुणस्थान ४ से ही होता है। तथापि उपयोगरूप स्वरूपाचरण चारित्ररूप शुद्धोपयोग मुख्यता से साक्षात् श्रेणी चढने को उन्मुख सातिशय अप्रमत्त से निश्चय मोक्षमार्ग कहा जाता है। केवल नय विवक्षा भेद है। वह विवाद पक्ष का विषय नहीं है । सम्यग्दर्शन का वर्णन करते समय बृहद्र्व्यसंग्रह की टीका में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का तथा उनमें प्रसिद्ध पुरुषों का चरित्र वर्णन किया है वह प्राथमिक अवस्था में खास पठन करना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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