Book Title: Acharya Nemichandra va Bruhaddravyasangraha Author(s): Narendra Jain Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf View full book textPage 7
________________ २८८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ६. व्यवहारनय से जीव अपने अपने शरीर प्रमाण छोटा बडा है। निश्चयनय से सब जीव असंख्यात प्रदेशी समान है। ७. व्यवहारनय से जीव संसारी है, १४ मार्गणा, १४ गुण स्थान १४ जीव समास इनसे युक्त है। शुद्धनय से निश्चयनय से सर्व जीवमात्र शुद्ध ही है। ८. निश्चयनय से सब बंधों से मुक्त जीव ऊर्ध्वगति स्वभाव है। व्यवहारनय से संसारी जीव विग्रह गति में विदिशा को छोडकर चारों दिशाओं के ओर और नीचे ऊपर श्रेणी के अनुरूप गमन करता है । ९. निश्चयनय से मुक्त जीव शुद्ध चैतन्य मात्र है। स्वतःसिद्ध सिद्ध है, व्यवहारनय से कर्मों से मुक्त है, सम्यक्त्वादि आठ गुणों से सहित है, चरम देह से किंचित् न्यून आकार है। लोकाग्रस्थित है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त है। पांच अजीव द्रव्य वर्णन पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये ५ अजीव द्रव्य है। इनमें से पुद्गलद्रव्य मूर्त है। शेष द्रव्य अमूर्त है । शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, उद्योत, आतप ये सब पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। गतिमान् जीव पुद्गलों को गमन करने में सर्व साधारण बाह्य निमित्त कारण धर्म द्रव्य है। स्थितिमान् जीव पुद्गलों को स्थिर होने में सर्वसाधारण बाह्य निमित्त अधर्म द्रव्य है । सब द्रव्यों को अवगाह देने में बाह्य निमित्त आकाश द्रव्य है । सब द्रव्यों को अपने अपने पर्याय रूप से परिणमन करने में बाह्य निमित्त काल द्रव्य है। धर्मादिक द्रव्य जितने आकाश के भाग में रहते हैं उसको लोकाकाश कहते हैं । उसके आगे चारों ओर अनंत अलोकाकाश है। लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु इस प्रकार असंख्यात कालाणु द्रव्य है। धर्म-अधर्म-आकाश एक एक अखंड द्रव्य है । जीव अनंतानंत है। पुद्गल परमाणु इनसे भी अनन्त पट है। काल को छोडकर पांच द्रव्यों को अस्तिकाय-बहुप्रदेशी द्रव्य कहते हैं । काल एकप्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है। धर्म-अधर्म प्रत्येक जीव इनके प्रत्येक के लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश होते हैं । आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। पुद्गल परमाणु वास्तव में निश्चयनय से एकप्रदेशी हैं । परंतु जितने परमाणु का स्कंध होता है वह संख्यात-असंख्यात अनंतप्रदेशी उपचार से कहा जाता है । इसलिये बहुप्रदेशी है। ६. द्वितीय अधिकार संक्षिप्त वर्णन इस अधिकार में जीव-अजीवादि ७ तत्त्वों का तथा पुण्य-पाप मिलाकर ९ पदार्थों का वर्णन किया है। वास्तव में तत्त्व ७ जीव और अजीव द्रव्य के संयोगविशेष से उत्पन्न होनेवाले संयोगी रूप है । इसलिये इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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